पृष्ठ:भारतेन्दु हरिश्चन्द्र.djvu/२९९

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गीति-काव्य] २६३ । रखा है। श्रीकृष्ण विवाह के लिए दूलह बन कर आए हैं और उनकी शोभा देखकर सखियाँ आपस में कहती हैं- सखि चलो साँवला दुलह देखन जावें मधुरी मूरत लखि अँखिया अाज सिरावै॥ नीली घोड़ी चढ़ि बना मेरा बन पाया । भोले मुख मरवट सुन्दर लगत सुहाया । तैसी दुलहिन सँग श्री वृषभानु-कुमारी । मौरी सिर सोहत अंग केसरी सारी ।। मुख वरवट कर मैं चूरी सरस सँवारी नकबेसर सोभित चितहिं चुरावन वारी ।। सिर सेंदुर मुख मैं पान अधिक छबि पावै । मधुरी...|| सखियन मिलि रस सों नेह गाँठ लै जोरी । रहिं वारि फेरि तन मन धन सब तृन तोरी ।। गावत नाचत आन द सों मिलि के गोरी। मिलि हँसत हँसावत सकत न कङ्कन छोरी ॥ 'हरिचन्द्र' जुगल छबि देखि बधाई गावै मधुरी मूरत लखि अँखियाँ आज सिरावै ॥ सखी राधा बर कैसा सजीला। देखो री गोइयाँ नजर नहि लागै कैसा खिले सिर चीरा छबीला ।। वार फेर जल पीयो मेरी सजनी मति देखो भर नन रँगीला । 'हरीचन्द' मिलि लेहु बलैया अँगुरिन करि चटकारि चुटीला ।। भारतेन्दु जी ने विशेषत: प्रेमलीला ही का वर्णन किया है। दान, मान, विरह, मिलन आदि के एक से एक अच्छे पद कहे हैं। अंत में ब्रजलीला समाप्त करके श्रीकृष्ण भगवान मथुरा चले गए और गोपियाँ विरह-कातरा हो गई, वे कहती हैं- .