पृष्ठ:भारतेन्दु हरिश्चन्द्र.djvu/२७५

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२६८ [ भारतेन्दु हरिश्चन्द्र भारतेन्दु जी ने कुल मिलाकर लगभग डेढ़ दर्जन के नाटक लिखे, जिनमें कई संस्कृत से, एक बँगला से तथा एक अँगरेज़ी से अनूदित हैं। इसलिये इनके छोटे बड़े प्रायः नौ दस मौलिक नाटकों ही की रचना से इनके नाट्यशास्त्र-ज्ञान की पड़ताल की जायगी। इसके सिवा यह भी ध्यान रखना चाहिए कि भारतेन्दु जी ने नाट्यकला पर स्वतंत्र पुस्तक 'नाटक' लिखा है, जिसे उन्होंने संस्कृत तथा अँगरेजी दोनों ही के नाट्यकला के ग्रंथों को मनन करके तैयार किया है और स्थान-स्थान पर अपनी स्वतंत्र राय भी दी है। सर्वोपरि इन्होंने. इसमें "अब नाटक में कहीं 'आशी:' प्रभृति नाट्यालंकार, कहीं 'प्रकरी', कहीं 'विलोभन', कहीं 'संफेट', 'पंचसंधि', वा ऐसे ही अन्य विषयों की कोई आव- श्यकता नहीं रही । संस्कृत नाटक की भाँति हिन्दी नाटक में इनका अनुसन्धान करने, वा किसी नाटकांग में इनको यत्नपूर्वक रख . कर हिन्दी नाटक लिखना व्यर्थ है, क्योंकि प्राचीन लक्षण रख- कर आधुनिक नाटकादि की शोभा संपादन करने से उल्टा फल होता है और यत्न व्यर्थ हो जाता है । संस्कृत नाटकादि रचना के निमित्त महामुनि भरत जी जो सब नियम लिख गए हैं, उनमें जो हिन्दी नाटक-रचना के नितांत उपयोगी हैं और इस काल के सहृदय सामाजिक लोगों की रुचि के अनुयायी हैं वे ही नियम यहाँ प्रकाशित होते हैं।” अस्तु, इस 'नाटक' तथा इनके मौलिक नाटकों के रचना-कौशल दोनों ही पर दृष्टि रखते हुए विवेचना करना उचित होगा। भारतीय नाट्यकला के अनुसार नाटक के तीन मूलतत्व कथावस्तु, नायक तथा रस होते हैं। कथावस्तु से उस आख्यान या घटना या व्यापार से तात्पर्य नहीं है जिससे नाटक की कथा- "वस्तु का निर्माण हुआ है, पर उनके उस स्वरूप से मतलब हैं जो