पृष्ठ:भारतेन्दु हरिश्चन्द्र.djvu/२६६

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भाषा तथा भाषा शैली ] २५६ साहित्य मिलता है वह व्रजभाषा या हिन्दी में है अथवा मिश्रित भाषा में है । यह गद्य साहित्य बहुत थोड़ा था और इनके लेखक- गण उँगलियों पर गिने जा सकते हैं। इस गद्य साहित्य में विशे- षत: कहानी या धार्मिक वार्ताएँ थीं। गद्य में लिखी गई टीकाएँ भी इस में परिगणित की जा सकती हैं। इसके अनंतर हिंदी गद्य साहित्य का विशेष रूप से प्रारम्भ ईसवी उन्नीसवीं शताब्दी के साथ हुश्रा । कलकत्ते के कॉलेज की तत्वावधानता में कुछ पुस्तकें लिखी गई और इंशाअल्लाह खाँ तथा मुन्शी सदासुखलाल ने भी कुछ रचनाएँ की, पर इससे भाषा की कोई शैली स्थिर न हो सकी। इसके बाद पुन प्रायः पचास साठ वर्ष तक यह कार्य रुका सा रहा। धर्म-प्रचार के 'लिये ईसाई पादरियों ने और शिक्षा के लिये स्कूली अध्यापकों ने छोटी-मोटी पुस्तकें लिखी। ईसाई धर्म प्रचारकों की भाषा लल्लूलाल या मुन्शी सदासुखलाल की शैली पर थी, जिसमें संस्कृत के तद्भव शब्दों का प्राचुर्य रहता था। विक्रमी बीसवी शताब्दि के प्रारम्भ में दो सुलेखक, राजा शिवप्रसाद सितारए-हिंद तथा राजा लक्ष्मण सिंह हिन्दी साहित्य क्षेत्र में भाषा की दो प्रकार की शैली लेकर उतरे। पहिले सज्जन फारसी तथा अरबी के 'प्रामफहम और खासपसंद' शब्दों को हिन्दी भाषा में स्थान देने के शायक थे और दूसरे शुद्ध हिन्दी के। यद्यपि राजा शिवप्रसाद की प्रारंभिक रचनाओं में 'उसको कोई हिन्दू अप्रामा- 'णिक नहीं कह सकता।' या 'उसके दान ने राजा कर्ण को लोगों के जी से भुलाया और उसके न्याय ने विक्रम को भी लजाया ?' ऐसी ही भाषा थी पर बाद को यह खिचड़ी भाषा के ही समर्थक हो गए और लिखने लगे कि 'बल्कि एक सल्तनत के मानिन्द कि जिसकी हदें कायम हो गई हों और जिसका इन्तजाम मुंतज़िम .