पृष्ठ:भारतेन्दु हरिश्चन्द्र.djvu/२६४

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भाषा तथा भाषा शैली] २५७ आविर्भूत हुई मानी जाती है। इसी उर्दू से केवल उर्दू जानने वाले अच्छे अच्छे विद्वान खड़ी बोली हिन्दी का प्रादुर्भाव होना बतला कर कतरा जाते हैं, पर वे स्वयं नहीं कह सकते कि उनकी उर्दू में फारसी शब्दों के सिवा जो और कुछ सम्मिलित है वह किस भाषा से आया है। आबेहयात के वजन में वे कहेंगे कि वह ब्रजभाषा से निकली है। अपनी-अपनी राय ही तो है, मुण्डे-मुण्डे मतिर्भिन्नाः। भारतवर्ष में इस समय बहुत सी भाषाएँ बोली जाती हैं और उनमें से कुछ में बहुत उच्चकोटि का साहित्य मौजूद भी है, कुछ में साधारण और कुछ में केवल ग्रामीण चनैनी इत्यादि मात्र प्राप्त हैं। यह एक नियम-सा है कि किसी भाषा के साहित्यिक रूप धारण करने के बहुत पहले वह किसी प्रांत विशेष की बोलचाल को भाषा बन जाती है। जिस भाषा के कोई बोलने- चालने या समझने वाले ही नहीं होंगे, उसमें साहित्य कहाँ से आ टपकेगा। ब्रजभाषा, अवधी, राजस्थानी, गुजराती, द्राविड़ी आदि भाषाएँ अपने-अपने प्रांतों में बोली जाती थीं और समय समय पर उनमें साहित्य का निर्माण होता जाता था। इसी प्रकार खड़ी बोली हिन्दी भी मेरठ तथा उसके आस-पास के प्रांतों में बोली जाती थी। इस बोलचाल की भाषा को सुगम समझ कर या पहिले-पहिल इसी से काम पड़ने पर मुसल्मान आक्रमणकारियों ने इस देश के निवासियों से विचारों के आदान-प्रदान के लिये इसी भाषा को माध्यम बनाया और इसमें अपनी भाषा के शब्दों को रखकर समझने समझाने लगे। इस प्रकार की मिश्रित भाषा बनाकर देशियों को अपना तात्पर्य समझाने में सुगमता लाने के लिए एक शब्दकोष निर्मित हुआ था और विदेशियों में ऊँटों पर लादकर वितरित किया गया था। इसका नाम 'खालिक-