पृष्ठ:भारतेन्दु हरिश्चन्द्र.djvu/२२७

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3 धर्म ग्रंथ २१६. मोती टॅके हुए खरीते में भेजा था पर वह अपव्यय मात्र था, क्योंकि वह बुरी बला आज भी कमासुतो के, निठल्लुओं के नहीं, पीछे पड़ी हुई है। धर्म ग्रंथ सांसारिक सुखों में लिप्त ज्ञात होते हुए भी भारतेन्दु जी ने स्वधर्म विषयक जितना ज्ञानोपार्जन किया था और जितनी उनकी धर्म-सम्बन्धी रचनाएँ प्राप्त हैं उनसे यह स्पष्टत: मालूम हो जाता है कि वे कितने धर्मभीरु तथा सच्चे कृष्णभक्त थे। इनकी अनन्य भक्ति तथा प्रेम का दिग्दर्शन इन्हीं की रचनाओं द्वारा आगे कराया जायगा । इनकी इन रचनाओं को पढ़ कर इनकी दृढ़- भक्ति तथा परम-वैष्णवता में किसी को भी शंका नहीं रह सकती। बाल्यावस्था ही से इनमें धर्म-तत्व विषयक शंकाएं उठाकर उन्हें समझने का शौक था और जल में छाया' न्यायेन विषय-भोग में लिप्त ज्ञात होते हुए भी यह उनसे परे रहे । इन्होंने लगभग तीस पुस्तिकाएँ इस विषय पर लिखी हैं। 'भक्त-सर्वस्व' में लगभग चार सौ दोहे हैं। इनमें श्रीकृष्ण जी, श्री स्वामिनी राधिका जी, श्री रामचन्द्र जी तथा महाप्रभु प्राचार्य जी के चरण-चिह्नों पर कवि ने अनेक प्रकार से उक्तियाँ कही हैं। प्रथम दो पर ही विशेष हैं। एक-एक चिह्न पर आठ-आठ दस-दस भाव तक कहे गए हैं, जिनसे भक्ति- रस उमड़ा पड़ता है। इसका प्रथम संस्करण सन् १८७० ई० में प्रकाशित हुआ था। इसका एक संस्करण गुजराती लिपि में भी सन् १८७३ ई० में छपा था। 'वैष्णव-सर्वस्व' में वैष्णव मत के चारों संप्रदायों-विष्णुस्वामी, रामानुज, माधवाचार्य तथा निम्बादित्य की परंपरा-तथा आचार्यो के संक्षिप्त परिचय दिए गए हैं। चारों उप-संप्रदायों-श्री चैतन्य ,