पृष्ठ:भारतेन्दु हरिश्चन्द्र.djvu/२११

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भारतेंदु हरिश्चन्द्र सं० १६३३ की हरिश्चन्द्रचन्द्रिका तथा मोहन चन्द्रिका में क्रमशः छपा है । यह अनुवाद पं० गोपाल शास्त्री ने किया था जो बहुत अच्छा है । भरतपुर के राज्यच्युत महाराज के राजकुमार राव कृष्णदेव सिंह ने इसका ब्रजभाषा में रूपान्तर किया है। भारतेन्दु जी इसका अभिनय कराया चाहते थे पर उनकी यह इच्छा पूरी न हो सकी। 'भारत-दुर्दशा' भारतेन्दु जी की निज कल्पना से सं०१६३३. वि० में प्रादुर्भूत हुआ था। यह छोटा-सा रूपक छः अंकों में विभक्त है। इसमें नाटककार ने भारत के प्राचीन गौरव का ओजस्विनी भाषा में वर्णन कर वर्तमान समय की दुरवस्था पर आँसू बहाए हैं ! इसके पाठकों तथा दर्शकों पर इस दुःखांत रूपक का स्थायी प्रभाव पड़ता है और केवल करुणरस में निमग्न होकर ही वे नहीं रह सकते । इसी नैराश्य में भारत की अवनति के मूल कारणों के उच्छेदन करने की ईसा उनमें जागृत हो जाती है। इसके कुछ पदों में देश की दुरवस्था पर जो कुछ कहा गया है। वह ऐसा करुणा है कि उन्हें पढ़कर स्वदेश प्रेमियों के मन उद्वेलित हो जाते हैं । क्यों न हों वे एक सच्चे देशभक्त के हृदय के रक्त से सिंचित हैं। आज पूरे पचास वर्ष बाद भी प्रायः वही अवस्था है। आज भी देश शिक्षा में और देशों से पिछड़ा ही है, आलस्य, दारिद्रय, मदिरासक्ति आदि उसी प्रकार की है। आज भी स्त्रदेशी कपड़े की पुकार जोरों से हो रही है, जिसे उसी समय इस रूपक के पाँचवे महराष्ट्र पात्र के द्वारा इस प्रकार कहलाया गया है 'कपड़ा बीनने की कल मँगानी, हिन्दुस्तानी कपड़ा पहिनना।' तात्पर्य यह कि भारतेन्दु जी ने इस रूपक में देश की दशा दिखलाने में पूर्ण अंक में