पृष्ठ:भारतेन्दु हरिश्चन्द्र.djvu/२१०

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2 रचनाए २०१ है, इस समझ की। सत्य ही जो अधिकारी नहीं हैं उनके समझ ही में न आवेगा। हिन्दी साहित्य की ब्रजभाषा की कविता का साधारण ज्ञाता भी यह जानता होगा कि ब्रजलीला की स्वामिनी श्री राधिका जी हैं। वहाँ किसी की माता, दादी या रानी स्वामिनी नहीं कहलाती थी । ब्रज की गोपियों के लिए श्रीकृष्णा स्वामी तथा श्री राधा ही स्वामिनी थी । चन्द्रावली जी की माता 'अवश्य वृद्धा रही होंगी और उनका श्रीकृष्ण जी को 'प्यारे सों' 'शब्दों में संबोधित करना, जिसे वे स्यात् अपना दामाद बना रही थीं, कहीं अधिक विचित्र बतलाया जा सकता था पर समालोचक महोदय की दृष्टि उधर नहीं पड़ी नहीं तो इसे भी वे अवश्य लिखते । जिसने यह संदेश कहा था उसी की बात कुछ ही पंक्ति बाद आप पढ़ लेते तो इस शब्द से किससे प्रयोजन है यह स्पष्ट हो जाता । वह कहती है, तो मैं और स्वामिनी में कछू भेद नहीं है ताहू में तू रस की पोषक ठैरी ।' और तीसरे अंक में दोनों के मिलाने का जो उपाय निर्धारित हुअा था उसमें प्रिया जी अर्थात् श्री राधिका जी से आज्ञा प्राप्त करने की और “याके 'घरकेन सों याकी सफाई करावै' की दो बातें तै हुई थी। वही आज्ञा समय पर मिली, क्योंकि यदि यह आज्ञा पहिले ही मिली होती तो श्रीकृष्ण जी के गुप्त रूप से आने की आवश्य. कता न रह जाती! इस नाटिका की कविताएँ विशेष रूप से हृदयग्राहिणी हैं। मार्मिक बातें ऐसी सरलता-पूर्वक कह दी गई हैं कि हृदय पर चोट करती हैं। भाषा अत्यन्त मधुर और प्रौढ़ है। निस्पृह दैवी प्रेम का मनोमुग्धकारी उज्ज्वलतम सुन्दर जीता-जागता चित्र खड़ा कर दिया गया है। क्यों न हो, यह सच्चे प्रेमी भक्त के निज हृदय का प्रतिबिंब है। इस नाटिका का संस्कृत अनुवाद