पृष्ठ:भारतेन्दु हरिश्चन्द्र.djvu/२०९

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भारतेंदु हरिश्चन्द्र कोई भी सहृदय उसे पढ़कर उकता नहीं सकता। तीसरे अंक का अंकावतार गुप्त पत्र भेजने का रहस्य बतलाता है। उसके 'अनंतर कई सखियों के साथ चन्द्रावली जी आती हैं और चार्तालाप करते हुए कार्य साधन का उपाय निश्चित होता है। इसमें भी विरह-कातरा रमणी का कथन नीरसों के लिए आवश्यकता से अधिक हो गया है पर विरहिणी को आवश्यक अनावश्यक समझने की बुद्धि नहीं रह जाती । महाकवि कालिदास ने भी लिखा है कि 'कामार्ता हि प्रकृति कृपणाश्चेतना- चेतनेषु।' इन अंकों में वर्षावर्णन आया है और उसका विरहिणी के हृदय पर जो असर पड़ेगा वह पूर्ण रूप से दिखलाया गया है। वहाँ इन प्राकृतिक दृश्यों को चन्द्रावली के मानवी जीवन का अंग बना कर दिखलाना मूर्खता मात्र होता। चौथे अंक में पहिले श्रीकृष्ण जी योगिन बनकर आते हैं और फिर ललिता तथा चन्द्रावली जी आती हैं। अन्त में युगल प्रेमियों का मिलन होता है। इसमें यमुनाजी की शोभा का नौ छप्पयों में उसी प्रकार अच्छा वर्णन हुआ है जिस प्रकार सत्यहरिश्चन्द्र में गंगा का। इसकी एक बात पर उक्त समालोचक लिखते हैं कि “एक विचित्र आदर्श भी उपस्थित कर दिया गया है। कहाँ तो चन्द्रावली की माता उसका बाहर आना जाना बंद कर देतो है और कहाँ योगिनी का वेष धारण किए श्रीष्ण- चन्द्र के आने तथा अपना वास्तविक रूप प्रकट करने पर ठीक उसी समय माता का यह संदेशा भी आजाता है कि 'स्वामिनी ने आज्ञा दई है के प्यारे सों कही दै चन्द्रावली की कुंज में सुखेन पधारौ।' न जाने किस आदर्श को सामने रखकर इस नाटिका के पात्रों का चरित्र चित्रण किया गया है।" धन्य है, बलिहारी