पृष्ठ:भारतेन्दु हरिश्चन्द्र.djvu/२००

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रचनाएँ १६१ है। इन्होंने लगभग डेढ़ दर्जन के मौलिक और अनुवादित नाटक लिखे, जिनमें कई खेले भी जा चुके हैं। स० १६२५ वि० के प्रारम्भ में भारतेन्दु जी ने नाटक लिखने में हाथ लगाया और पहिले पहल एक मौलिक ग्रंथ 'प्रत्रास नाटक' लिखना शुरू किया। वह कुछ ही लिखा जाकर रह गया। इसका केवल एक पृष्ठ एक सज्जन को देखने मात्र को मिल गया था पर वह भी अब नहीं मिलता। इनके अनंतर शकुतला के सिवाय और सब नाटकों में रत्नावली नाटिका बहुत अच्छी और पढ़ने वालों को आनन्द देवे वाली है, इस हेतु मैंने पहिले इसी नाटिका का तजुमा किया है । यह नाटिका सुप्रसिद्ध कवि श्री हर्षकृत है।' इस नाटिका को प्रस्तावना तथा विष्कंभक ही का केवल अनुवाद मात्र मिलता है और इसके बाद का कुछ भी अंश प्राप्त नहीं है । स्यात् अनुवाद हा अधूरा रहा हो पर भूमिका के शब्दों से तो यही ज्ञात होता है कि अनुवाद पूरा हो गया था । जो कुछ हो, अब वह अनुवाद नहीं मिलता। इन्हीं के समय पं० देवदत्त ने, जो बरेली में संस्कृत के प्रोफेसर थे, इस नाटिका का अनुवाद किया था। इस अनुवाद की भारतेन्दु जी ने “नाटक" में कठोर आलोचना भी की है, जो वास्तव में बहुत ही भ्रष्ट हुआ था। इसी वर्ष भारतेन्दु जी ने विद्यासुन्दर नाटक की रचना की। इसका मूल संस्कृत का विद्यासुन्दर तथा चौरपंचाशिका है, जिसका रचयिता स्यात् यही सुन्दर है। इस काव्य की राजकुमारी का नाम भी विद्या ही है। इसी के आधार पर बंगला भाषा में रामप्रसाद सेन तथा भारत चन्द्रराय गुणाकर ने दो काव्य तथा महाराज जोगेन्द्रनाथ ठाकुर ने एक नाटक निर्मित किया था। गुणाकरके काव्य के आधार पर हिन्दी में भारतेन्दु जी ने इस नाटक को लिखा था । बंगला नाटक के आधार पर मिर्जापुर प्रवासी