पृष्ठ:भारतेन्दु हरिश्चन्द्र.djvu/१०३

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पूर्वज-गण ६१ सब सज्जन के मान को कारन इक हरिचंद । पर यह स्वयं अपने को 'सेवक गुनी जन के चाकर चतुर के हैं, कविन के मीत चित हित गुन गानी के' कहते हैं । यह कोई ऐश्वर्य शाली राजा या महाराजा नहीं थे, तिस पर 'घर के शुभचिंतकों' द्वारा घर से निकाले हुए थे, इतने पर भी यथाशक्ति इन्होंने किसी को विमुख न फेरा। स्वयं देने के सिवा सभाएँ कर या काशिराज द्वारा ये गुणियों को विशेष रूप से पुरस्कृत भी कराते थे। सुप्रसिद्ध ज्योतिर्विद पं० बापूदेव शास्त्री जी ने भारतेन्दु जी के आग्रह से सं० १६३४ वि० से नया पंचांग निकालना आरंभ किया था। इसके पहिले के जो पंचांग काशी में प्रकाशित होते थे वे ऐसे भ्रष्ट होते थे कि ग्रामीण पंडितगण भी उनकी निन्दा करते थे। इसी नवीन पंचांग के प्रकाशित होने से यह अभाव पूरा हो गया। भारतेन्दु जी ने इसके पुरस्कार में शास्त्री जी को एक बहुमूल्य दुशाला भेट किया था । शास्त्री जी भारतेन्दु जी के यहाँ प्रायः आया करते थे पर एक दिन भारतेन्दु जी के एक मज़ाक पर कुछ क्रुद्ध होकर घर बैठ रहे । पंडितप्रवर श्री सुधाकर जी द्विवेदी भी प्रसिद्ध ज्योतिषी थे और यही पूर्वोक्त पंडितजी की मृत्यु पर संस्कृत कालेज में उनके स्थानापन्न नियुक्त हुए थे। यह एक बार भारतेन्दु जी के साथ राजघाट का पुल देखने के लिए गये थे, जो उस समय बन रहा था । वहाँ से लौटने पर पंडित जी ने इसी पुल दर्शन पर एक दोहा इस प्रकार बनाकर सुनाया कि- राजघाट पर बँधत पुल जहँ कुलीन की ढेर । आज गए कल देखि के आजहि लौटे फेर ॥