ध्वज-गण महाराज ने भी मुस्कुरा दिया। व्याकरण के अनेक सूत्र लगने पर भी वे उसका अर्थ न कह सके। इसी प्रकार के एक दूसरे शब्द का भी वे अर्थ न बतला सके। रथयात्रा के अवसर पर यह बहुत से मनुष्यों के साथ दर्शन करने जाया करते थे। ऐसे अवसर पर प्रायः लम्बा कुरता पहिरते और रङ्गीन गोंटा टँका हुआ दुपट्टा गर्दन से लम्बे बल दोनों ओर लटका लेते थे। चौगोशिया टोपी तो यह सर्वदा ही 'पहिरते थे। एक बार दर्शन कर लौटते समय चौधराइन जी के बाग में, जहाँ लावनी हो रही थी, यह खड़े हो गये । इनके किसी साथ वाले ने कहा कि 'चलिए, यहाँ क्या है जो आप भीड़ में कष्ट उठा रहे हैं।' एक लावनीबाज बोल उठा कि 'जी हाँ, यहाँ क्या है ? इस प्रकार कविता बनाते हुए कोई गावे तब जाने ।' भारतेन्दु जी ने यह सुन कर टेापी उतार कर रख दी और लावनी बाजों के बीच में जा बैठे और उन्हीं में से एक का डफ लेकर लावनी बनाते हुए गाने लगे। जब उन सभों को मालूम हुआ कि यह कौन है, तब सब ने क्षमा याचना की। भारतेन्दु जी के श्वसुर गुलाब राय जी के दशाह के दिन इन्हें घाट पर पहुँचने में कुछ देर हो गई। जिस पर शाह माधो जी इनकी भत्सर्ना करने लगे। यह चुपचाप लघुशंका निवारण करने के लिये पास ही एक स्थान पर बैठ गये। माधो जी ने हँस कर कहा कि 'अपने श्वसुर. का नाम लेते चलो।' यह उत्तर न देकर माधो जी के पूर्वजों का नाम लेकर 'तृप्यताम्' कहने लगे। अंत में माधो जी खिसिया कर बोले कि 'तुम धूर्त हो तुमसे कौन लगे। होली का उत्सव भी यह खूब मानते थे । संध्या के समय बिरादरी के बहुत से सज्जन तथा मुसाहिबों के साथ रंग लिये
पृष्ठ:भारतेन्दु हरिश्चन्द्र.djvu/१०१
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।