पृष्ठ:भारतेन्दु बाबू हरिश्चंद्र का जीवन चरित्र.djvu/७३

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भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्र का जीवन चरित्न था, जब कि मैंने अपनी गरज से समझ बूझ कर उसका मूल्य तथा नजराना आदि स्वीकार कर लिया, तो क्या अब देने के भय से मै उस सत्य को भग कर दूं ?" धन्य हरिश्चन्द्र धन्य । 'सत्य हरिश्चन्द्र' लिखने के उपयुक्त पात्र तुम्हीं थे। ये वाक्य तुम्हारी ही लेखनी से निकलने योग्य थे- "चन्द टरै, सूरज टर, टरै जगत व्यवहार । पै दृढ श्रीहरिचन्द को, टरै न सत्य विचार॥" यह दृढ़ता और यह सत्यता उनको अन्त समय तक रही। वह पास द्रव्य न होने से दे न सकै परन्तु अस्वीकार कभी नहीं कर सकते थे। थोडे ही दिनो मे उनकी सारी पैतृक सम्पत्ति जाती रही और वह धन खोने के कारण 'नालायक' समझे जाने लगे। इनके मातामह की लाखो की सम्पत्ति थी, जिसके उत्तरा- धिकारी यही दोनो भाई थे। इनकी मातामही ने ५ मे सन् १८६२ ई० को इन दोनो भाइयो के नाम अपनी समग्र सम्पत्ति का वसीयतनामा लिख दिया था। परन्तु अब तो ये नालायक ठहरे, इनके हाथ जाने से कोई सम्पत्ति बच न सकेंगी, बडो का नाम निशान मिट जायगा, इसलिये १४ एप्रिल सन् १८७५ ई० को माता- मही ने दूसरा वसीयतनामा लिखा, जिसके अनुसार इन्हें कुछ भी अधिकार न देकर सर्वस्व छोटे भाई बाबू गोकुलचन्द्र को दिया। निस्पृह हरिश्चन्द्र को न पहिले वसीयतनामे से सम्पत्ति पाने का हष था, न इसके अनुसार उसके खोने का खेद हुमा। वकीलो को सम्मति से हिन्दू अबीरा स्त्री का इन्हें भागरहित करना सक्था कानून के विरुद्ध था, इसमे स्वय इनके स्वीकार की प्रावश्यकता थी, अतएव २८ अक्तूबर सन् १८७८ ई० को मातामही ने एक बखशीशनामा छोटे भाई बाबू गोकुलचन्द्र के नाम लिख दिया और उदार हृदय हरिश्चन्द्र ने उस पर अपनी स्वीकृति करके हस्ताक्षर कर दिया। जिस स्वर्गीय हरिश्चन्द्र को सुमेरु भी उठाकर किसी दीन दुखी को देने मे सकोच न होता, उसे इस तुच्छ सम्पत्ति को अपने सहोदर छोटे भाई को देना क्या बडी बात थी। कहने के साथ हस्ताक्षर कर दिया। इस बखशिशनामे के अनुसार इन्हें केवल चार हजार रुपया मिला था। इस प्रकार थोडे काल मे नगरसेठ हरिश्चन्द्र राजा हरिश्चन्द्र की भाँति धनहीन हरिश्चन्द्र हो गए । 'सत्य हरिश्चन्द्र' की रचना के समय पण्डित शीतला प्रसाद त्रिपाठी जी ने सत्य कहा था कि-