पृष्ठ:भारतेन्दु बाबू हरिश्चंद्र का जीवन चरित्र.djvu/६८

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्र का जीवन चरित्र (४६) दोहे', गिरिधरवासकृत नहुषनाटक', तथा शेखसादी कृत 'गुलिस्ताँ का छन्दोमय अनुबाद प्रादि ग्रन्थ अशट प्रकाशित हुए। परन्तु केवल इतने ही से सतोष न हुआ। देखा कि बिना गद्य रचना इस समय कुछ उपकार नहीं हो सकता । इस समय और प्रात आगे बढ़ रहे हैं, कवल यही प्रात सबसे पीछे है, यह सोच देशभक्त हरि- श्चन्द्र ने देशहित-व्रत धारण किया और “कविवचनसुधा" को पाक्षिक, फिर साप्ताहिक कर दिया तथा राजनैतिक, सामाजिक आदि आन्दोलन प्रारम्भ कर दिया और “कविवचनसुधा" का सिद्धान्त वाक्य यह हुमा- "खल गनन सो सज्जन दुखी मति होहिं, हरिपद मति रहे । उपधम छूट, स्वत्व निज ___ भारत गहै, कर दुख बहै ।। बुध तजहिं मत्सर, नारि नर सम होहिं, जग आनंद लहै । तजि ग्रामकविता, सुकविजन की अमृत बानी सब कहै।" यद्यपि इस समय इन बातो का कहना कुछ कठिन नहीं प्रतीत होता है, परन्तु उस अधपरम्परा के समय मे इनका प्रकाश्य रूप से इस प्रकार कहना सहज न था। नव्य शिक्षित समाज को 'हरिपद मति रहैं' कहना जैसा अरुचिकर था, उससे बढ़ कर पुराने 'लकीर के फकीरों' को 'उपधम छूट' कहना क्रोधोन्मत्त करना था। जैसा ही अग्रेज हाकिमो को 'स्वत्व निज भारत गहै, कर (टैक्स) दुख बहै। कहना कर्णकटु था, उससे अधिक 'नारि नर सम होहि कहना हिन्दुस्तानी भद्र समाज को चिढ़ाना था। परन्तु बीर हरिश्चन्द्र ने जो जी मे ठाना उसे कह ही डाला, और जो कहा उसे आजन्म निबाहा भी। इन्हीं कारणो से वह गवन्मेण्ट के क्रोध-भाजन हुए, अपने समाज मे निन्दित हुए और समय समय पर नव्य समाज से भी बुरे बने, परन्तु जो व्रत उन्होने धारण किया उसे अन्त तक नहीं छोडा, यहां तक कि 'कविवचनसुधा' से अपना सम्बन्ध छोड़ने पर भी आजन्म यही व्रत रक्खा। 'विद्यासुन्दर' नाटक की अवतारणा भी इसी समय हुई। नाना प्रकार के गद्य पद्यमय ग्रन्थ बनने और छपने लगे। उस समय हिन्दी का कुछ भी पादर न था। इन पुस्तको और इस समाचार पत्र को कौर मोल लेता और पढता? परन्तु