पृष्ठ:भारतेन्दु बाबू हरिश्चंद्र का जीवन चरित्र.djvu/६५

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(४६) भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्र का जीवन चरित्र विशेष सग्रहीत हैं, तथा स्वय भी जो कोई कविता की है तो भृगार या धम- सम्बन्धी। जगदीश यात्रा-रुचि परिवर्तन इसी समय स्त्रियो का प्राग्रह श्री जगदीश-यात्रा का हुमा । स० १९२२ (स० १५६४-६५) मे ये सकुटुम्ब जगदीश यात्रा को चले। यही समय इनके जीवन मे प्रधान परिवतन का हुआ। बुरी या भली जो कुछ बातें इनके जीवन की सगिनी हुई, उनका सूत्रपात इसी समय से हुआ। पढना तो छूट ही गया था। उस समय तक रेल पूरी पूरी जारी नहीं हुई थी। उस समय जो कोई इतनी बडी यात्रा करते तो उन्हें पहुँचाने के लिये जाति कुटुम्ब के लोग तथा इष्टमित्र नगर के बाहर तक जाते थे। निदान इनका भी डेरा नगर के बाहर पडा। नगर के रईस तथा आपस के लोग मिलने के लिये प्राने लगे। बड़े प्रादमियो के लडको पर प्राय नगर के अथलोलुप लोगो की दृष्टि रहती ही है, विशेष कर पितहीन बालक पर। अतएव वैसे ही एक महापुरुष इनके पास भी मिलने के लिये पहुँचे । ये वही महा- शय थे जिनके पितामह ने बाबू हषचन्द्र की नाबालग्री मे इनके घर को लूटा था, और उन्हीं महापुरुष के पिता ने बाबू गोपालचन्द्र की नाबालगी का लाभ उठाया था। और अब इनकी नाबालग्री में ये महात्मा क्यो चकने लगे थे? अतएव ये भी मिलने के लिये पाए। शिष्टाचार की बातें होने पर वे इनको एकान्त मे लिवा ले गए और उन्हें दो प्रशफियाँ देने लगे। यह देख बालक हरिश्चन्द्र अचम्भे में श्रा गए और पूछा "इन अफियो से क्या होगा ?" शुभचिन्तक जी बोले "आप इतनी बडी यात्रा करते हैं, कुछ पास रहना चाहिए। इन्होने उत्तर दिया "हमारे साथ मुनीब गुमाश्ते रुपये पसे सभी कुछ हैं, फिर इन तुच्छ दो अफियो से क्या होगा?" शुभचिन्तक जी ने कहा "माप लडके हैं, इन भेदो को नहीं जानते, मै आपका पुश्तैनी 'नमकखार' हूँ। इस लिये इतना कहता हूँ। मेरा कहना मानिए और इसे पास रखिए, काम लगै तो खच कीजिएगा नहीं तो फेर दीजिएगा। मै क्या आप से कुछ मॉगता हूँ। आप जानते ही है कि आपके यहाँ बहू जी का हुक्म चलता है। जो आपका जी किसी बात को चाहा और उन्होंने