पृष्ठ:भारतेन्दु बाबू हरिश्चंद्र का जीवन चरित्र.djvu/६

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सामाजिक तथा इसी तरह किसी देश-समाज के निजी और सावभौमिक व्यक्तित्वो मे जो विरोधाभास हमे झलकता है, वह प्राय. उसके भीतर टकराते हुए वा-सघष के कारण ही होता है। यदि समाज पर जड पुरोहितवाद और मुर्दा कमकाण्ड का बेपनाह बोझ न पडा होता तो किसी प्रौद्दालक आरुणि के मन में यह सत्य भी प्रकट न हुआ होता कि प्राग मे व्यथ ही घी, जौ, धान आदि फूक कर ब्राह्मणो को मोटी-मोटी दक्षिणाएँ देने के काम का नाम यज्ञ नही है। मोक्ष के लिए विचार-यज्ञ आवश्यक है। बुद्ध और महावीर के समय मे एक ओर जहाँ इने गिने जनपदीय नगरो मे लक्ष्मी का समस्त वैभव-विलास अपने भीतर समेटकर नागर सभ्यता अपनी 'अति' की परेशानियो से उलझी थी, वही दूसरी ओर अनेक मानव जातियाँ जगलो मे पिछडा-दर-पिछडा जीवन बिताने के लिए बाध्य थी। इसलिए यह आकस्मिक नहीं था कि बुद्ध और. महावीर जसे धनकुबेरो के राजदुलारे बेटे अनुपम त्याग का आदश उपस्थित करे । इसान के दद ने ही उनके दिलो मे पैठ कर दुनिया को सदा नयी दृष्टि दी है । तानाशाह सामन्तो के क्षणिक सुख की शिकार सरल ग्राम्यबालाओ की करुणा ने ही कविकुलगुरु कालिदास के अन्तर मे उपज कर उनसे 'अभिज्ञान शाकुन्तलम्' जैसे अनूठे नाटक की रचना करायी। कबीर तुलसी की रामरूपी आस्था अपने देश काल के मानसिक बिखराव और घोर अनास्था से ही उपजी थी। भारतेन्दु रचित "निज भाषा उन्नति अहै सब उन्नति को मूल", हमारी चेतना मे नक्षत्रवत् आज तक चमकनेवाला मन, अपने देश, समाज और काल के मनोद्वन्द्व से ही उदय हुआ था । सक्रान्ति काल स्वय ही अपने भले-बुरे भाग्य के अनुसार अपना प्रतिनिधित्व करने के लिए एक या कुछ व्यक्ति चुन लेता है। भारतेन्दु का समस्त अतर्बाह्य व्यक्तित्व ही ऐसे देश काल मे निखर सकता था जो एक कठिन सक्रान्ति से गुजर कर नयी चेतना के तट से प्रा लगा हो । नये पूंजीगदी साम्राज्यवाद से अनु