पृष्ठ:भारतेन्दु बाबू हरिश्चंद्र का जीवन चरित्र.djvu/३६

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

________________

भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्र का जीवन चरित्र (१७) काशी के लोगो ने भी इसे स्वीकार किया। बान सुन्दरदास मे बड़ी भारी पञ्चायत हई और अन्त मे यही फैसला हुआ कि तिलोचन आदि की पन्सेरियाँ ज्यो की स्यो ही जारी रहैं। गबिन्स साहब भी इससे सम्मत हुए और नगर मे जय जयकार हो गया। इस बात के देखनेवाले अब तक जीवित हैं कि जिस समय पुरानी पन्सेरियो के जारी रहने की प्राज्ञा लेकर उक्त तीनो महाशय हाथी पर सवार होकर चले, बीच मे बाबू हर्षचन्द्र बैठे थे, मोरछल होता था, बाजे बजते थे, सारे शहर की खिलकत साथ थी और स्त्रिये खिडकियो से पुष्पवर्षा करती थीं, तथा इस सवारी को लोगो ने इसी शोभा के साथ नगर मे घुमाया था। बुढ़वामगल के प्रसिद्ध मेले को उन्नति देने वाले यही थे। पहिले लोग वर्ष के अन्तिम मगल को जिसे बूढ़ा मगल कहते थे, दुर्गाजी के दशनो को नाव पर सवार होकर जाया करते थे। धीरे धीरे उन नावो पर नाच भी कराने लगे और अन्त मे बाबू हर्षचन्द्र तथा काशीराज के परामर्शानुसार बुढवामगल का वर्तमान रूप हुआ और मेला चार दिन तक रहने लगा। मैने कई बेर काशीराज महाराज ईश्वरीप्रसाद नारायणसिंह बहादुर को भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्र से कहते सुना है कि इस मेले का दूलह तो तुम्हारा ही बश है । इन के यहाँ बुढवामङ्गल का कच्छा बडी ही तैयारी के साथ पटता था और बडे ही मर्यादापूर्वक प्रबन्ध होता था। बिरादरी मे नाई का नेवता फिरता था और सब लोग गुलाबी पगडी और दुपट्टे तथा लडकों को गुलाबी टोपी दुपट्टे पहिना कर ले जाते थे। नौकर आदि भी गुलाबी पगडी दुपट्टे पहिनते थे। जिन के पास न होता उन को यहाँ से मिलता। गगा जी के पार रेत मे हलवाईखाना बैठ जाता और चारो दिन वहीं बिरादरी को जेवनार होती। काशीराज हर साल मोरपखी पर सवार हो इनके कच्छे की शोभा देखने पाते। यह प्रथा ठीक इसी रीति पर बाबू गोपालचन्द्र के समय तक जारी रही। ये काशिराज के महाजन थे। और बहुतेरे प्रबन्ध उस रियासत के इन के सुपुर्द थे। राज्य की अशर्फियें इन के यहाँ रहती थीं और उनकी अगोरवाई मिलती थी। काशिराज इन्हें बहुत ही मानते थे, राजकीय कामो मे प्राय इनकी सलाह लिया करते थे।