पृष्ठ:भारतेन्दु बाबू हरिश्चंद्र का जीवन चरित्र.djvu/१०९

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भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्र का जीवन चरित्न (६१) "जिन तन सम किय जानि जिय, कठिन जगत जजाल । जयतु सदा सो ग्रन्थ कवि, प्रेमजोगिनी बाल ॥" आगे चलकर उसी नाटिका मे सूत्रधार कहता है- "क्या सारे ससार के लोग सुखी रहै और हमलोगो का परमबन्धु, पिता, मित्र, पुत्र, सब भावनाओ से भावित, प्रेम की एक मात्र मूर्ति, सौजन्य का एक मात्र पान, भारत का एक मात्र हित, हिन्दी का एक मात्र जनक, भाषा नाटको का एक मात्र जीवनदाता, हरिश्चन्द्र ही दुखी हो ? (ने मे जल भरकर) हा सज्जन शिरोमणे । कुछ चिन्ता नहीं, तेरा तो बाना है कि कितना भी दुख हो उसे सुख ही मानना, लोभ के परित्याग के समय नाम और कीति का परित्याग कर दिया है और जगत से विपरीत अति चलके तूने प्रेम की टकसाल खडी की है। क्या हुआ जो निर्दय ईश्वर तुझे प्रत्यक्ष प्राकर अपने प्रडू मे रखकर आदर नहीं देता और खल लोग तेरी नित्य एक नई निन्दा करते है और तू ससारी बभव से सुचित नहीं है, तुझे इससे क्या, प्रेमी लोग जो तेरे है और तू जिन्हें सरबस है, वे जब जहाँ उत्पन्न होगे तेरे नाम को प्रादर से लेंगे और तेरी रहन सहन को अपनी जीवन पद्धति समझेगे। (नेत्र से ऑसू गिरते हैं) मित्र | तुम तो दूसरो का अपकार और अपना उपकार दोनो भूल जाते हो, तुम्हें इनकी निन्दा से क्या? इतना चित्त क्यो क्षुब्ध करते हो? स्मरण रक्खो ये कोडे ऐसे ही रहेंगे और तुम लोकवहिष्कृत होकर भी इनके सिर पर पैर रखके बिहार करोगे। क्या तुम अपना वह कवित्त भूल गए--'कहेगे सबही नैन नीर भरि भरि पाछे प्यारे हरिचन्द की कहानी रहि जायगी' मित्र । मैं जानता हूँ कि तुम पर सब प्रारोप व्यर्थ है।" अस्तु, अब इस विषय मे अधिक न लिखकर इसका विचार हम सहृदय पाठको ही पर छोडते हैं। अब अन्तिम पद पर “सरबस रसिक के, सुदास दास प्रेमिन के सखा प्यारे कृष्ण के, गुलाम राधारानी के" ध्यान दीजिए जिसका यह साभिमान वाक्य है कि- "चन्द टर सूरज टरै टरै जगत के नेम । पै दृढ श्री हरिचन्द को टरै न अविचल प्रेम ॥" उस की रसिकता और प्रेम का क्या कहना है। इनका हृदय प्रेमरङ्ग से रंगा हुआ था। प्राय देखा गया है कि जिस समय उनके हृदय मे प्रेम का प्रावेश आता था, देहानुसन्धान न रह जाता, उस प्रमावस्था मे कितने पदाथ लोग इनके सामने