पृष्ठ:भारतेन्दु बाबू हरिश्चंद्र का जीवन चरित्र.djvu/१०८

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(६०) भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्र का जीवन चरित्र सरबस रसिक के सुदास दास प्रेमिन के, सखा प्यारे कृष्ण के, गुलाम राधारानी के ॥" हमारे इस लेख मे उर्धोक्त स्वभावो का बहुत कुछ परिचय पाठक पा चुके हैं। गुनीजनो की सेवा, चतुरो को सम्मान, कवियो की मित्रता, नम्रता तथा उग्रता, लापरवाही प्रादि गुणो के विषय मे कुछ विशेष कहना व्यथ है। अब केवल उक्त पद के अन्तिम भाग की समालोचना शेष है। "दिवाने सदा सूरत निवानी के" यही एक विषय है जिस पर तीव्र आलोचना हो सकती है और उसी को कोई भूषण तथा कोई दूषण की दृष्टि से देखते हैं, तथाच इनके जीवन चरित्र रचना मे यही एक प्रधान बाधक विषय रहा। वास्तव मे ऐसा कोई सभ्य देश नहीं है जो सौन्दर्योपासक न हो, परन्तु इसकी मात्रा का कुछ बढ जाना ही भूषण से दूषण तथा मनुष्य को कष्ट- कर होता है, और गुलाब मे कॉटे की तरह खटकता है। इस विषय को सोचकर उनके प्रेमी उनके चरित्र सङ्कलन मे कुछ सकुचित होते है, परन्तु उस महानुभाव उदार चरित्र को इसका कुछ भी सोच न था, क्योकि शुद्ध हृदय, शुद्ध प्रेम जो जी मे आया सच्चे जी से किया। हमलोग प्रागा पीछा जितना चाहै करे, परन्तु उन्होने जैसे ही यहाँ इन वाक्यो को साभिमान कहा है, वैसे ही इसके भीतर जो कुछ दुख- वायकता वा दूषण है उसे भी इस दोहे मे स्पष्ट कह दिया है- "जगत जाल मे नित बध्यो परयों नारि के फन्द । मिथ्या अभिमानी पतित झूठो कवि हरिचन्द ॥" अस्तु, इस विषय मे हम केवल एक घटना का उल्लेख करके इसको यहीं छोडेंगे। एक दिन अपने कुछ अन्तरङ्ग मित्रो के साथ बैठे थे और एक वारविलासिनी भी वर्तमान थी। उसने कुछ ऐसे हावभाव कटाक्ष से देखा कि इन्हें कुछ नवीन भाव स्फुरन हुआ और तुरन्त एक कविता बनाई, और उसे उन मित्रो को सुनाकर कहा कि "हमा इन सभी का सहवास विशेष कर इसीलिये करते है । कहिए यह सच्चा मजमून कसे लब्ध हो सकता था ?" निदान जो कुछ हो, उनके इस प्राच- रण का भला या बुरा फल उन्हीं के लिये था, दूसरो को उससे कोई हानि लाम नहीं, और वह ससार को क्या समझते थे, और उनके प्राचरण किस अभिप्राय के होते थे इसे उन्हीं के वाक्य कुछ स्पष्ट कर सकते हैं। "प्रेमयोगिनी" के नान्दी- पाठ मे कहते हैं-