पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/९५

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देखो किन ऐसी वान सिखाई । इन दरसन प्यासे नयनन को प्यारे दरसा जा रे भीर भई दखो ठाढ़ी हँसै बृजबाल पब ललि मुख मेरे झक भूक के चलन, कलगी की हलन, 'हरीचंद' तुम बृज कैसी यह नई रीति चलाई ।२२ 'हरिचद' नाम मेरो लै लै नई तान सुना जा रे ।३१६ हाँ दर रहो ठाढ़े हो कन्हाई । पीलू जिन पकरो बहियाँ मेरी हटो लंगर सजन तोरी हो मुख देखे की प्रीत । करो न लंगराई इठलाई । तुम अपने जोबन मदमाते कठिन बिरह की रीत । काहे इत आओ अरराने रहो दूर जहाँ मिलत तहाँ हँसि हंसि बोलत गावत रस के गीत। 'हरिचंद' कैसी रीन चलाई मन-भाई ।२३ 'हरीचंद' घर घर के भौंरा तुम मतलब के मीत ।३२ ठुमरी, सोरठ हिंडोला बे परवाह मोहन मीत, ही तो पछिताई हो दिल देके । बरबस आय फंसी इन फंदन छोड़ सकल कल-रीत । जमुना-तट कुंजन बीन रही सब सखियाँ फूलों की कलियाँ । कीनी चाल पतंग-दीप की मानी तनक न नीत । एक गावत एक ताल बजावत है 'हरीचंद' कछु हाथ न आयो करि ओछे सों प्रीत १२४ करती मिल के एक रंग-रलियाँ । तू मिल जा मेरे प्यारे । मृगनैनी आय अनेक जुरी छबि मेरे बिन मन-मोहन प्यारे व्याकुल प्रान हमारे । छाय रही बृज की गलियां । 'हरीचंद' मुखड़ा दिखला जा इन नयनन के तारे ।२५ 'हरीचंद' तहाँ मनमोहन जू बहियाँ जिन पकरो मोरी, पिया तुम साँवरे हम गोरी । सखि बन आए लखि यो अलियाँ ।३६ तुम तो ढोटा नंद महर के, हम वृषभानु-किशोरी। यह कैसी बान तिहारी मेरे प्यारे गिरवरधारी हो । 'हरीचंद' तुम कमरी ओहो, हम पै नील पिछौरी ।२६ मारग रोकि रहे सूने बन घेरि लई पर-नारी । सेजिया जिन आओ मोरी, मैं पइयाँ लागौं तोरी । करि बरजोरी मोरी बहियाँ मरोरी, तुम सौतिन घर रात रहत हौ आवत हो उठ भोरी । लीनी मटुकीहु सिर सों उतारी । 'हरीचंद' हम सो मत बोलो मूठ कहत क्यों जोरी ।२७ ऐसी चपलाई कहा करत कन्हाई, झूठी सब बृज की गोरी, ये देत उलहनो जोरी । देखो लोक-लाज सब टारी । मइया मैं नाहीं दधि खायौ मैं नहिं मटुकी फोरी । पइयाँ परौं दूर रहौ अंग न छुओ 'हरीचंद' मोहिं निबल जान ये नाहक लावत चोरी ।२८ हमारो 'हरीचंद' तोपै बलिहारी ।३४ कलिंगड़ा सजन छतियाँ लपटा जा रे । दोउ नैन जोरि कछु भौंह मोरि अकि आओ रे मोरे रूठे पियरवा, धाय लागो प्यारी के गरवा । भूमि चूमि सुख दै झकोरि हिय की गाँठे हँस हँस सोलो, अधरन पै धरके अपनो अधर रस मोहिं पिला जा रे । दोउ भुज-बिलास गलबाँही डाल मेरे मान राख राखौ अपने कोरवा ।२१ गालन पै धर अपनो गाल, छतियाँ लेहु लगाय सजन अब मत तरसाओ रे । उर छाय अंग संग में सबै नयनन सों बहे जल की धारें, बाढ़ी है तन बिरह-पीर सूरत दिखलाओ रे । मेरो खोल कंचुकी-बंद हँसि के रस लै जोबन को कसि-कसि कै. 'हरीचंद' पिय गरिवरधारी, पैयाँ परै जाओं बलिहारी, 'हरिचंद' रँगीली सेजन पै सब अब जिय नाहीं धरत धीर जलदी उठ धाओ रे ।३० कसक मिटा जा रे ।३५ मुकुट लटक भौहन की मटक मोहन दिखला जा रे । सजन गलियों बिच आ जा रे । तेरे बिन बाढ़ी बिरह-पीर गलियों-बिच आ जारे। मुख तनक हँसन, कटि कछनी कसन, तेरे बिना मोहिं नींद न आवे, घर-अँगना कछु नाहि सुहावे, रूठ रहे क्यों मुख सो बोलो, 'हरीचंद' अपनी प्यारी को तुम बिन तलफत प्रान हमारे, रस-रंग बरसा जा रे। कुंडल की लटक, तानन की खटक, प्रेम तरंग ५५