पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/९४८

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

आरुणि - उपदेश किया, जो मत अब तक रामानुजीय नाम से प्रसिद्ध है और जिसमें यामुन, शठकोप इत्यादि महात्मा और अग्रस्वामी इत्यादि प्रेमी हुए । उद्धव - उद्भव जी का क्या पूछना है जिनको प्रेमपात्र और प्रेमी अर्थात् श्रीभगवान तथा श्री गोपीजन ने आप अपने मुख से प्रेममार्ग का उपदेश किया है, उनको क्या बात है । ये वही उद्धव जी हैं जिनको छोटेपन से खेल ही में भगवतपूजा का व्यसन था और जिनको भगवान ने अपना तत्व संसार में स्थापन करने के हेतु ब्रह्मशाप उल्लंघन करके पृथ्वी में छोड़ा, उन का क्या पूछना है। इनही का नामांतर निम्बार्क है और ये सनकादिकों के मत के प्रवर्तकं हैं और इन के दश श्लोक जो मिलते हैं उनमें युगल स्वरूप की भक्ति का सिद्धांत किया है । यूहांगिनं ब्रहमपरं वरेण्यं ध्यायेम कृष्णं कमलेक्षणं हरि। अंगेतु वामे वृषभानुजां मुदा विराजमानामनुरूपसौभगां ।। सखीसहस्त्रैः परिसेवितां सदा स्मरेम देवीं सकलेष्टकामदाम् । ये बड़े प्राचीन हैं क्योंकि श्रीमद्भागवत में वेदस्तुति में इनका मत कहा है और जहाँ परीक्षित राजा से मिलने के हेतु ऋषिगण आये हैं वहाँ भी इनका नाम है यथा "राजर्षिवर्या अरुणादयश्च । ये श्री स्वामिनी जी के कंकण के पूर्णावतार हैं अतएव इनको लोग सुदर्शनतत्व कहते हैं । किसी समय इन्होंने यतियों का निमंत्रण किया था । उनके आने में विलंब हुआ और जब भोजन करने बैठे तब साँझ हो गई, इस से उन यतियों ने कहा कि अब हम नहीं खायेंगे ; तब इन्होंने कहा कि आप लोग खाइये अभी सूर्य है और आप नीम पर चढ़कर सूर्य बन के दर्शन दिया, अतएव निम्बार्क नाम पड़ा । इन के सेव्य श्री स्वरूप श्रीगोपीजनवल्लभजी और शालग्राम सर्वेश्वर अभी विद्यमान हैं तथा श्रीनिवासाचार्य, पुरुषोत्तमाचार्य इत्यादि धुरंधर पंडित और हरिवंश जी. व्यासजी, स्वामी हरिदास जी इत्यादि प्रमी इन्हीं के संप्रदाय में हुए हैं। बलि - इनको सर्वस्वात्मनिवेदन भक्ति सिद्ध थी । अपने पितामह साक्षात् प्रहलाद जी से उपदेष्टा और भगवान् से पात्र पावें तो फिर इनका क्या पूछना है । कहते हैं कि यतीन्द्र, बलि, अंबरीष और विश्वक्सेन नाम के किसी काल में प्राचीन चार वैष्णव संप्रदाय थे, परंतु अब सब लुप्त हुए । हनुमान - श्री हनुमान जी की दास्यभक्ति का वर्णन ऊपर दास्यभक्तिनिरुपण में कह आये हैं और क्या कहें, केवल भगवान की कथा-श्रवण के हेतु जिनका जीवधारण है, उनके प्रेम का माहात्म्य कौन कह सकता है ? क्योंकि उन्होंने भगवान से यही वर माँगा है कि 'यावत्तव कथा लोके विचरिष्यति पावनी । तावत्स्थास्यामि मेदिन्यां तवाज्ञामनुपालयन् ।" और जिनका मत अद्यापि श्रीभगवान के मुखारविंद से सुने हुए विष्णुतत्व के अनुसार "मध्वमत" नाम से प्रसिद्ध है। विभीषण - इन्होंने कुसंगति में रह कर भी भगवद्भक्ति लोगों को सिखाई, वरञ्च 'सकृदेव प्रपन्नाय तवास्मीति च याचते । अभयं सर्वभूतेभ्यो ददाम्येतद्बत मम ।।" यह जगदुपकारिणी प्रतिज्ञा इन्हीं के हेतु हुई ८४ ॐ य इदं नारदप्रोक्तं शिवानुशासनं विश्वसति श्रदधते स भक्तिमान् भवति स प्रेष्ठं लभते स प्रष्ठं लभते इति । इस नारद जी के कहे हुए शिवानुशासन पर जो विश्वास और श्रद्धा करता है वह भक्तिमान होता है, वह प्यारे को पाता है, वह प्यारे को पाता है ।। ८४ ।। उपदेश करके उसका फल कहते हैं । विशेष करके प्रष्ठ शब्द से यह दिखाया कि भगवान् इत्यादि को ब्रह्म, विष्णु, नारायण, भगवान इत्यादि भावों से तो और लोग भी पावेंगे परंतु प्रियतम भाव से वही पायेगा जो इस प्रेमसूत्र पर विश्वास करेगा और प्रेममार्ग पर चलेगा। इति नारदीये भक्तिशास्त्रे दशमो ऽनुवाकः ।। यह श्रीनारद जी का कहा हुआ भक्तिशास्त्र दश अनुवाक में "तदीयसर्वस्व' नामक तदीयनामांकित अनन्यवीर वैष्णव हरिश्चन्द्र कृत भाषाभाष्यसहित समाप्त हुआ ।। ।। इति ।। fue भारतेन्दु समग्र ९०४