पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/९४७

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कुमार (सनकादिक), व्यासजी. शुकदेवजी, शाण्डिल्य, गर्गाचार्य, विष्णु, कौण्डिन्य, शेष, उद्धवजी, आरुणि, बलि. हनुमानजी, विभीषण आदि भक्ति के आचार्य लोक के उपहास से निर्भय होकर पूर्वोक्त मार्ग कहते है ।। कुमार सनकादिक, इनका प्रेममार्ग निम्बार्कमत के नाम से प्रसिद्ध है । भगवान ने इन लोगों से अपना तत्व हंस का स्वरूप लेकर कहा है और इनकी वंशपरंपरा मन्वन्तर वर्णन में श्री मद्भागवत में लिखी है "महर्षयः सप्त पूर्वे चत्वारो मनवस्तथा । मभावा मानसा जाता येषां लोक इमाः प्रजाः" ।। और प्रामाणिक स्मातों के निबंधों में भी एकादशी के प्रसंग में ४५ दंड का वेध मानने वालों का इनका मत "कपालवेधमित्याहुराचार्या ये हरिप्रियः" "निम्बार्को भगवान्येषामित्याहुः सनकादयः ।।" इत्यादि वाक्यों से प्रमाण करके लिखते हैं और निम्बार्काचार्य ने अपना परमाचार्य इन्हीं लोगों को माना भी है जैसा उन्होंने दशश्लोकी में कहा है "उपासनीयं नितरां जनैः सह प्रहाणये जानतमोनिवृत्तये । सनंदनाद्यैर्मुनिभिर्यथोक्तं श्रीनारदायाखिलतत्वसाक्षिणे ।। इत्यादि । और लोग तो भक्तिसाधनार्थ ही प्रगट हुए है क्योकि यद्यपि उन्होंने अपना शिष्यरूपी वंश तो स्थापन किया. पर पिता की आज्ञा भी न मानकर मोह करने वाली और सृष्टि न की, यथा "ते नैच्छन्मोक्षधर्माणो वासुदेवपरायणः" इत्यादि । बरंच भक्तिस्थापनार्थ यह भगवान ही का अवतार है "तप्तुन्तपो विविधगोकसिसृक्षत में वादौसनात स्वतपसः स चतुःसनो भूत् । प्राक्कलपसंप्लवविनष्टमिहात्मतत्वं सम्यग् जगद मुनयो यदनक्षतात्मन् ।।" इति । व्यास -व्यासजी ने तो मुक्तकंठ होकर कहा ही है कि "आलोइय सर्वशास्त्राणि विचार्य च पुनः पुनः । इदमेकं सुनिस्पन्नं ध्येयो नारायणः सदा ।।" इत्यादि । जो कहो कि अनेक पुराणों में व्यास जी ने अनेक मत और उपासना कही है तो उसमें भक्ति की विशेषता कहाँ आई तो यह शंका मत करना क्योंकि व्यास जी की तो दृढ़ प्रतिज्ञा है 'वेदे रामायणे चैव पुराणे भारते तथा । आदावन्ते च मध्ये च हरिः सर्वत्र गीयते ।।" इत्यादि इन को भक्ति मिलने का विशेष वर्णन भक्तवंशपरंपरा में मिलेगा। शुकदेवजी शुकदेवजी ने राजा से पहिले ही सिद्धांत स्वरूप कहा है "देहापत्यकलत्रादिष्वात्ममैन्येष- वसतस्वपि । तेषां प्रमत्तो निधनं पश्यन्नपि न पश्यति ।। तस्माभारत सर्वात्मा भगवान्हरिरीश्वरः । श्रोतव्यः कीर्तितव्यश्च स्मर्तव्यश्चेच्छताभयं ।। एतावान सांख्ययोगाभ्यां स्वधर्मपरिनिष्ठया । जन्मलाभः परः पुंसामंते नारायणस्मृतिः ।। प्रायेण मुनयो राजन् निवृत्ता विधिनिषेधतः । नैर्गुण्यस्था रमन्तेस्म गुणनुकथने हरेः ।। इत्यादि" । क्यों न कहें ? वेद जिनको मुक्त लिखता है "शुको मुक्तो वामदेवो वा" और भगवान की माया जिनको कभी व्यापी ही नहीं, जिनको देख कर स्त्रियों ने भी लज्जा न की, जिन्होंने पिता को वृक्षों में से उत्तर दिया और प्रेम मार्ग का सिद्धांत स्वरूप श्रीमदभागवत प्रगट करके राजा परीक्षित को मोक्ष दिया तथा सप्ताह में भी बीच बीच में जब लीला स्मरण आती थी तब वेसुध हो जाते थे. उन के प्रेम का निरूपण यहाँ क्या हो सकता शाण्डिाय शाण्डिल्य जी ने तो स्वतंत्र भक्तिशास्त्र ही रचा है, जिसमें ज्ञान, योगादि से भक्तिसाधन ही उत्तम कहा है। गर्ग -- गर्गाचार्य अपनी गर्गसंहिता में अनेक प्रकार के भक्ति के रहस्य तथा यादव आदि के नष्ट होने पर जब भगवत्तत्व का जानने वाला कोई नहीं रहा तब बज्रनाभ ने अनेक प्रकार का रहस्य, जो व्रज में तथा उद्धव नारदानिकों के मुख से सुना था. कहकर फिर से भक्तिमार्ग का स्थापन किया । इनको वात्सल्य और दास्य दोनों भक्ति सिद्ध थी। विष्णु -लोक में जिनका नाम विष्णुस्वामी प्रसिद्ध है । विशेष वर्णन परंपरा में देखो । कौण्डिन्य -- कौण्डिन्य के विषय में हम इतना ही जानते हैं कि हमारे आचार्य ने अपनी गुरुपरंपरा में श्री गोपीजन के समान इनको भी माना है यथा "कौण्डिन्यो गोपिकाः प्रोक्ता गुरवः" इति और जिनको तन्मयतासक्ति थी । जिनको इस आसक्ति से वृक्षा में भी सर्वत्र श्री अनंत का प्रत्यक्ष दर्शन हुआ था । शेषजी ने केवल दास्य भक्ति की शिक्षा के हेतु श्री लक्ष्मण जी का स्वरूप लेकर संसार को दिखाया कि दास्य इसका नाम है और इस रीति करना होता है और आप ने भी पंचवटी में अपने सब गुप्त सिद्धांत उपदेश किए तथा श्री लक्ष्मी जी और गरुड़ जी से नारायणीय सिद्धांत पाकर उन्होंने चित्रकेतु इत्यादि को शिष- तदीय सर्वस्व ९०३