पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/९३४

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'भ्रमन्ति भारत भक्तास्तादृग जन्म सुदुर्लभं । सद्गुणनवणश्राव्यगानैनित्यं मुदाचिताः ।। ते यांति च मही पूत्या नराः शीत्रं ममालयं । इत्येवं कथितं सर्व पद्म कुरु यथोचितं ।। तदाज्ञयां तास्तच्चा हरिस्तस्थौ सुखासने ।। तथाच सरासंग्रह में पराशरस्मृति "सहस्रवार्षिकी पूजा विष्णोर्भगवता हरेः । सकृदभागवताचार्या: कलां नार्हति षोड़शी ।।" इत्यादि । बृहन्नारदीयपुराण में "पूजनाद्विष्णुभक्तानां पुरुषार्थोस्ति नेतरः । तेषु तदद्वेषत: किंचिन्नास्ति नाशनमात्मन: ।।" पद्मपुराण में श्री महादेव जी का वाक्य "आराधनानां सर्वेषां विष्णोराराधनं परं । तस्मात्परतरं देवि तदीयानां च पूजनं ।।" श्री मद्भागवत में श्री महादेव जी का वाक्य "न मे भागवतानां च प्रेयानन्योस्ति कर्हिचित्" इत्यादि । पूर्वोक्तश्लोकों में तदीय जनों का माहात्म्य सिद्ध हुआ तो ऐसे तदीयों की कृपा से भक्ति मिलो इसमें क्या आश्चर्य है वा भगवान ही की कृपा से होय । क्योंकि आप कभी-कभी भक्तिदान देते हैं "ददामि बुद्धियोगं तं येन मामुपयांति ते" । परतु भगवान की कृपा से भक्तों की कृपा सुलभ है क्योंकि भगवान भक्तिदान विशेष नहीं करते "मुक्तिं ददामि कर्हिचित स्म न भक्तियोग ।।" इत्यादि अतएव इस सूत्र में महत्कृपा का मुख्य करके भगवत्कृपा को गौण किया है। ३९ ॐ महत्संगस्तु दुर्लभो ऽगभ्यो ऽमोघश्च । और महत्संग दुर्लभ, अगम्य और अमोघ (सफल) है। ऐसा हा है, "क्षणाद्वैनापि तुलये न स्वर्ग नापुनर्भवं । भगवत्संगिसंगस्य मानां किमुताशिषः" इत्यादि । श्रीमद्भागवत में श्री महादेव जी का वाक्य है। "अमाचं सिद्धदर्शन" इत्यादि स्मृति तथा श्रीमुखवाक्य 'न रोधयति मां योगो न सांख्यं धर्म एवच । न स्वाध्यायस्तपस्त्यागो नेष्टापूत न दक्षिणा ।। ब्रतानि यज्ञच्छन्दांसि तीर्थानि नियमा यमाः । यथावरुध्येत्सत्संग: सर्वसंगापहाहि मां ।।" और लोक में भा प्रसिद्ध है "सत्संगतिः कथय किं न करोति पुंसां" इत्यादि । ४० ॐ लभ्यतेपि तत्कृपयैव । महत्संग उसकी कृपा से ही मिलता है। 'यस्य भागवता: प्रीतास्तस्य प्रीतो हरिः स्वयं ।" इत्यादि वाक्यों से सिद्ध है । तथा श्री महादेव जी ने भी कहा है "अथानन्यांप्रेस्तव कीर्तितीर्थे योन्तर्वनिः स्नाति विधूतपाप्मना । भूतेष्वनुक्रोशसुसत्वशीलिनां स्यात्संगमोनुग्रह पतमस्नु च" ।। ४१ ॐ तिस्मंस्तज्जने भेदाभावात् । उसके और उसके जन में भेद के अभाव से । श्रुति भी है । "यस्य देवे परा भक्तिर्यथा देव तथा गुरावित्यादि' । 'न मे भागवतानां च भुक्तिभेदोस्ति कर्हिचित्" इत्यादि श्री मुख से कहा है । तथाच श्री गोपीजन को "ता मन्मनस्का मतप्राणा बल्लव्यो में मद्यात्मिकाः" इत्यादि । श्री महादेव जी को "यस्त्वां द्रष्टि स मां देष्टि यस्त्वामनु स मामनु । त्वदुपासा जगन्नाथ सैवास्तु मम गोपते" तथा उद्योगपर्व में दुर्योधन से पांडवों के हेतु भी कहा है "यस्तान द्रष्टि स मां द्वेष्टि यस्ताननु स मामनु । ऐकात्म्यं मां गतं विद्धि पांडवै धर्मचारिभिः ।।" इत्यादि । तथा श्री प्रहलादादिक भक्तों से भगवान ने बही कहा है " जिसने तुमसे द्वेष किया उसने मुझ से द्वेष किया" । इसका उदाहरण अंबरीष का प्रकरण प्रत्यक्ष है और वहाँ भी श्रीमुख से कहा है "अहंभवतापराधीनो इयस्वतंत्र इव द्विजं । साधुभिग्रस्तहृदयो भक्तभक्तजनप्रियः ।।" महाभारत में भी कहा है 'तुलसीदलमात्रेण जलस्य चुलुकेन च । विक्रीणीते स्वमात्मानं भक्तेभ्यो भक्तवत्सलः ।।" उद्भव ची से भी ऐसाही कहा है। १ 'न लथा में प्रियतम आत्मयोनिन शंकरः । नचसकर्षणो न श्रीनैवात्मा च यथा भवान' (?) । 'निरपेक्ष मुनि शातं निāर समदर्शिनं । अनुब्रजाम्यहं नित्यपूजयेदधिरेणुभिः (?) ।। इत्यादि श्रीमुख से अपने भक्तों से अपनी एकता स्वाधीनता इत्यादि वर्णन किया, तो इस से भगवान और उनके भक्तों की एकात्मता ही सिद्ध हुई । "विधाप्येकं सदागम्य गम्यं भेदप्रभेदके: । प्रेम प्रेमी प्रेमपात्रत्रितयं प्रणतोसम्यह' ।। १ चारो नाम चार संप्रदाय के आचार्यों ही के लिये बहता माधव, महादेव विष्णुस्वामी, संकर्षण निम्बार्क और श्री रामानुज इन मर्यादामार्ग के भक्तों की उत्कर्षता के हेतु उद्वव को सबसे बड़ा कहा । भारतेन्दु समग्र ८९०