पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/९३१

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शांतस्य समचेतसः । मया संतुष्टमनसः सर्वा:सुखमया दिश: ।। अज्ञायैव गुणान् दोषान् मयादिष्टानपि स्वकान् । धर्मान सत्यज्य यः सर्वान् मां भवेत स सत्तमः ।। तस्मात् त्वमुदवोत्सृज्य चोदना प्रतिचोदनां । प्रवृत्तं च निवृत्तंच प्रोतव्यं श्रु तमेव च ।। मामेकमेव शरणमात्मानं सर्वदेहिनां । याहि सर्वात्मभावेन मया स्याःहयकुतोभयः (?) । न साधयति मां योगो न साख्यं धर्म उद्भव । न स्वाध्यायष्यतपस्त्यागे यथा भक्तिर्ममोर्जिता ।। भक्तयाहमेकथा ग्राह्यः श्रदयात्मा प्रियः सताम् । भक्तिः पुनाति मन्निष्ठा श्वपाकमपि संभवात् ।। धर्मः सत्यदयोपेतो विद्या वा तपसान्विता । मद्भक्तया येतमात्मानः (2) न सम्यक्प्रपुनातिहि ।। कथं विना रोमहर्ष द्रवता चेतसा विना । विनानन्दाचुकलया शुध्येद्भक्तया विनाशयः ।। वाग्गदगदा वते यस्य चित्तं रुदत्यभीदणं हसति क्कचिता ।। विलज्ज उद्गायति नृत्यते च मद्भक्तियुक्तो भुवनं पुनाति" । तथा - "नाहं वेदैर्न तपसान दानेन न चेज्यया । शक्य एवंविधो दृष्टुं दृष्टवानसि मां यथा ।। भक्त याहमेकया ग्राह्य अहमेवंविधोर्जुन । ज्ञातुं द्रष्टुं च तत्वोन प्रवेष्टुं च परंतप ।" इत्यादि ।। इन वाक्यों को छोड़ कर भक्तों के दोनों लोक साधन के लिए उसकी दृढ़ प्रतिज्ञा है "कौंतेय प्रतिजानीहि न मेभक्तः प्रणश्यति" "नरकादुद्धराम्यहं", "तान्विभयंह", "सोयं मे ब्रत आहितः" योगक्षेमं वहाम्यहं", "तेषामहं समुदर्ता मृत्युसंसारसागरात्' इत्यादि । २८ ॐ तस्या ज्ञानमेव साधनमित्येके । उस (भक्ति) का साधन ज्ञानही है यह किसी का मत है। यह नहीं हो सकता । गृध्र, अजामिल, गजेंद्रि इत्यादि को किसने जान दिया है "केवलेनहिभावेन गोप्यो गाव: खगा मृगाः। ये ऽन्ये मूढधियो नागाः सिद्धा मामीयुरञ्जसा" ।। भक्ति का साधन तो अपने चित्त का अंकुर और उनकी कृपा ही है, ज्ञान बेचारा क्या साधेगा ? २९ ॐ अन्योन्यानयत्वमित्यने । दूसरों का मत है कि भक्ति और ज्ञान से परस्पर आनयत्व है। यह भी नहीं हो सकता. जब मनुष्य किसी की भक्ति वा प्रीति कर लेगा तब उसके ज्ञान में क्या प्रवृत्त होगा ? पानी पी के जात नहीं पूछी जाती । ३० ॐ स्वयंफलरूपतेति ब्रहमकुमाराः । सनत्कुमारादिक और नारद जी का मत है कि भक्ति स्वयं फलरूपा है। हुई है, पहले भी कह आए हैं। ३१ ॐ राजगृहभोजनादिषु दृष्टत्वात् । राजा का घर और भोजनादि के केवल देखने में ऐसा ही देखा गया है। पूर्वकथित फलरूपता का उदाहरण दिखाते हैं । ३२ ॐ न तेन राजपरितोषो क्षुधाशान्तिर्वा । न उससे राजा का परितोष होगा, न क्षुधा मिटेगी । ज्ञान के फलरूप होने में दोष दिखाते हैं कि एक मनुष्य को किसी राजा का स्वरूपज्ञान बहुत अच्छा है पर इससे क्या ? क्या वह राजा बिना अपनी भक्ति किए ही उसे कुछ देगा वा कुछ भोजन रक्खा है ? हमको उसके स्वरूप का पूर्ण ज्ञान है कि इसमें पूरी है और वह आटा, घी, जल और अग्नि के संयोग से बनी है पर क्या इस ज्ञान ही से भूख मिट जायगी? कदापि नहीं । वैसा ही भगवान का केवल जानकर कभी सिद्ध नहीं हो सकता क्योंकि वह अपने स्वरूपों पर किस नाते दत्तचित्त होगा ? अतएव अगले सूत्र में फिर से आग्रह दिखाते ३३ ॐ तस्मात्सैव ग्राह्या मुमुक्षुभिः । इस कारण मोक्ष की इच्छा करने वाले उसी (भक्ति) का ग्रहण करें । जो अपना कल्याण चाहे तो इस सूत्र को कान खोलकर सुने और विश्वास करे । चौथा अनुवाक समाप्त हुआ । ३४ ॐ तस्यास्साधनानि गायनत्याचार्याः । तदीय सर्वस्व ५८७