पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/९१०

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जानना क स्त्री से पूछने गया और स्त्री की समति से शंकर जी से कहा महाराज ! सर्वगुणसंपन्न पुत्र मुझे दीजिए शिवजी ने बहुत अच्छा कह कर अन्य सर्वगुणसंपन्न कोई पुत्र न देखकर स्वयं उसका पुत्र होना स्वीकार किया और गर्भ-काल समाप्त होने पर उस ब्राहमण के स्त्री से अवतीर्ण हुए । ब्राहमण ने शिव का प्रसाद जान कर उस पुत्र का नाम शंकर रक्खा और क्रम से उपनयन तक संस्कार किये और साम वेद पढ़ाया । यह जनम से ही महाकवि हुआ, कभी शक्ति, कभी शिव और कभी विष्णु का स्तव करता था, जिस से वे देवता प्रत्यक्ष होकर वर देते थे । अणिमादि सिद्धि तो इस के वश में थीं । कुछ काल के अनंतर किसी ब्राहमण के घर में अवतीर्ण गौरी से यथाविधि विवाह हुआ । गृहस्थाश्रमी होकर त्रैवर्णिक धर्मका अजन किया और ताक्ष्मी ऐश्वर्य संतति की इच्छा करने वाले लोगों के लिये उपासना कांड प्रसिद्ध किया । सर्वजन में इसकी कीर्ति होने के कारण सब इसके वाक्य पर विश्वास करने लगे । ऐसे एकादश वर्ष व्यतीत हुए तब शंकराचार्य ने अपने तात से कहा कि पिता अब कुछ अनिष्ट होगा ऐसा ज्ञात होता है इसलिए मेरी मनीषा काशी में जाने की है सो आप की आज्ञा चाहता हूँ । यह सुन पिता ने कहा बहुत अच्छा है परंतु हमको भी काशी को ले चलो । तब शंकराचार्य ने अपने मा बाप को शिविका में बैठाल कर स्त्री समेत काशी में आगमन किया। काशी में आते ही शंकराचार्य को कालज्यर आया और अपनी अंत की बेला जान मणिकर्णिका में स्नान किया और "निमज्जता नाथ भवार्णवान्तश्चिरान्मया पोतइवामि लब्धः" इस श्लोकार्ध से स्तवन करते करते प्राण त्याग किया । यह पुत्र का अंत देख कर माता पिता ने बहुत विलाप किया । अंतर गौयशभूत शंकराचार्य की स्त्री ने अग्निम आधा श्लोक पढ़ा यथा "त्वयापि लब्धं भगवन्निदानीमनुत्तमं पात्रमिदं दयायाः" । यह श्लोकार्ध सुनते ही शंकराचार्य जीतिव होकर स्त्री से बोले कि यद्यपि तुमने हमको जीवित किया तथापि हम सन्यास करेंगे । ऐसा कहकर चतुर्विध कुटीचर, बहूदक, हंस और परमहंसात्मक सन्यास किया । यद्यपि शास्त्र की आज्ञा, यावत् मदिरामत्त के समान ज्ञान से मत्त हुए बिना शिखा सूत्र का त्याग करने के विषय नहीं तथापि इन्हों ने अपना पूर्व श्री विष्णु का "जमान्मद्विमुखानकुरु" यह वाक्य स्मरण करके शिखा सूत्र का त्याग किया और काषाय वस्त्र और दंड ग्रहण किया । अनंतर इनके बहुत से शिष्य भी हुए क्योंकि "यद्यदा चरति श्रेष्ठस्तत्त देवेतरोजनः । सयत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनु वर्तते" । अनंतर शंकराचार्य ने वही भगवान का वाक्य पूर्ण मनोगत कर के व्याससूत्र का भाष्य मायावाद अर्थात् दैत्य मत के अनुसार किया । कुछ दिन के अनंतर प्रायः इन का मत इस देश में फैल गया। उसी समय गुजरात देश में एक राजा था । उसका पुत्र कुमारपाल नामक था । यह हेम सूरि नाम किसी श्वेताम्बर जैन से पढ़ाया गया था । किसी समय कुमारपाल ने स्वप्न में राहु से ग्रसा हुआ पूर्ण चंद्र देखा और हेमसूरि से इस का फल पूछने को तत्काल आया । स्वप्न का वृत्त सुनते ही हेमसूरि ने उस की बहुत निंदा की । राजपुत्र हेमसूरि के दुष्ट भाषण सुन घर आया और हेसूरि को मारने का विचार करते करते शेष रात्रि तक जागा । प्रभात होते ही हेमसूरि ने शिष्य द्वारा राजपुत्र को कहला भेजा कि यह 'स्वप्न बहुत लाभदायक है, आज से सातवें दिन राज्य सर्व तुम्हारे हस्तगत होगा । यदि यह असत्य हो तो हमैं दंड देना नहीं हमारी आज्ञा मानना' । राजपुत्र ने हाँ कहा और ऐसा ही हुआ । तब राजपुत्र से कहकर हेमसूरि ने वैष्णव-शैव-मीमांसक सब को नगर से निकलवा दिया । उसी काल में सूर्यांश देवप्रबोध नामा और जैमिनी के अंश भट्टाचार्य्य नामा पूर्व में दो पंडित हुए । वे लोग जब काशी में आये तब सुना कि गुजरात में जैनों ने वेदमार्ग का नाश किया । ये सुन के वे लोग गुजरात गये और काल पाकर हेमसूर्य के विश्वासपात्र शिष्य हुए । एक दिन पद्मावती की अंतरंग आराधना में हेमसूर्य ने इन दोनों को मद्य पीने को दिया । देवप्रबोध ने तो मारे डर के पी लिया । भट्टाचार्य ने कहा कि थोड़ी देर ठहर के पीयेगे । अनंतर हेमसूर्य ने वेद धर्म की निंदा करना शुरू किया । यह सुन कर भट्टाचार्य की आँखों से आँसू गिरने लगा और हेमसूर्य्य ने जाना कि यह कोई छिपा हुआ ब्राहमण है । हेमसूर्य ने उसे अपने ऊपर के कमरे में कैद किया । वहाँ जैनमार्ग की बहुत सी पुस्तकें रक्खीं जिनको पढ़ कर भट्टाचार्य ने वही वशीकरण सिद्ध कर लिया जिससे हेमसूर्य ने राजा को वश कर लिया था । उस राजा की एक रानी वैद्यक थी और नित्य शालिग्राम का पूजन करके जल पीती थी । उसका महल भट्टाचार्य के बँगले से बहुत निकट था । एक दिन उस रानी ने लंबी साँस लेकर यह आधा श्लोक पा 'किंकरोमि क्व गच्छामि को वेदानुदरिष्यति" । यह सुनते ही भट्टाचार्य ने उत्तर दिया "माविशीद वरारोहे ! भट्टाचार्य स्तिभूतले और यह कहके कूद पड़े कि जो वेद प्रमाण भारतेन्दु समग्र ८६६ H