पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/९१

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जानि सुजान मैं प्रीति करी सहिकै चित माधुरी मूरति देखत ही जग की बहु भाँत हँसाई । 'हरिचद' जू जाय पग्यो सो पग्यो । त्यो 'हरिचंद' जू जो जो कयो सो करयो मोहिं औरन सो कछु काम नहीं अब चुप ह्वै करि कोटि उपाई। तौ जो कलंक लग्यो सो लग्यो । सोऊ नहीं निबही उनसों उन नंगी इमरो चढ़ेगो नहीं अलि तोरत बार कड़ न लगाई। साँवरो रंग रोग्यो सो लग्यो ।११३ साँची भई कहनावति वा अरी हमहूँ सब जानती लोक की चालहि ऊँची दुकान की फीकी मिठाई ।१०८ क्यों इतनो बतरावती हौ । जाति हो सब मोहन के गुन हित जामै हमारो बनै सो करो तौ प्रति प्रेम कहा लांग कीनो । सखियाँ तुम मेरी कहावती हो । त्यों 'हरिचंद' जू त्यागि सबै चित 'हग्निः' यामै न लाभ कम मोहन के रस रूप में भीनो । हमें बातन क्यों बहरावती हो । तोरि दई उन प्रीति उतै अपवाद सजनी मन पास नहीं हमरे तुम इतै जग को हम लीनो । कौन को का समुझाति हो ।११४ हाय सखी इन हाथन सो बिरे बलबीर पिया सजनी अपने पग आप कुठार मैं दीनो ।१०९ तिहि हेत सबै बिछावने हैं। इन नैनन मैं वह साँवार मति 'हरिचंद' त्यों सुनकै अपवाद न दांत आनि परी सारी । औरहु सोच बढ़ाबने हैं। अब तो है निबाहिबो याको भलो करिके उनके गुन-गान सदा 'हरिचंद' जू प्रीत करी सो करी। अपने दुख को बिसरावते हैं । उन खंबन के मद-गन मां जेहि भति सो द्यौस ए बीते सखी अँखियाँ ये हमारीनरी सोलरी । तेहि भौत सो बैंठ बितावने हैं ।११५ अब लोग नवाब करो नी करा हम प्रम के फंद परी सो परी ।११० मन-मोहन ने बिहरी जब सों. तन आँसुन सों सदा धोवती हैं । अब तो बदनाम भई भले ब्रज मैं घरहाई चवाव करो तो करौ । हरिचंद जू' प्रेम के फंद परी कुल की कुल लाहि खोवती हैं। अपकीरति होऊ भने 'हरिचंद' जू दुख के दिन कों कोऊ भाँति बिते सासु जेठानी लगे तो लरौ । बिरहागम रैन सँजोवती हैं। नित देखनो है वह रूप मनोहर लाज पैगाज परी तो परौ । हम ही अपनी सदा जानैं सस्ती निसि सोवती है किधों रोवती हैं ।११६ मोहिं आपने काम सों काम अली कल के कुल नाम धरौ तो धरौ ।१११ धिक देह औ गेह सबै सजनी जिहि के बस नेह को टनो है। नाम धरो सिगरो बृज तो अब कौन सी बात को सोच रहा है । उन प्रान-पियारे बिना इहि जीर्वाह त्यों 'हरिचंद' जू और ह लोगन राखि कहा सुख लूटनो है। मान्यो बुरो अरी सोऊ रहा है । 'हरिचंद जू' बात ठनी सो ठनी नित के कलकानि ते छूटनो है होनी हुती सु तो होय चुकी इन बातन तें अब लाभ कहा है। तजि और उपाव अनेक अरी अब तो हमकों विष घुटनो है ।११७ लागे कलंक ह अंक लगें नहि तौ सखि भूलि हमारी महा है ।११२| सुनी है पुरानन में द्विज के मुखन बात वह सुन्दर रूप बिलोकि सखी मन तोहि देखें अपजस होत ही अचूक है । हाथ तें मेरे भग्यो सो भग्यो । तासों 'हरिचंद' करि दरसन तेरो जिय 1 प्रेम माधुरी ५१