पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/९०२

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परा मक्तिीक नाम एकांत भाव क्योकि गौतम ऐसा ही कहा है॥३॥ वधा "या मां पात सर्वत्र", "मनमना भव मदभक्तो". "मत्कर्मकृन्मत्परमोमदभक्तः". 4 "वत सर्वाणि कमाणमयि मन्यस्यमत्पराः" "तमेव शरणं गच्य": "सर्यधर्मान परित्यज्य" इत्यादि पाकि ARY पाप वा आपत्ति मिटाने के हेतु कीर्तनादि करते हैं, इससे यहाँ कातनादि में विशेषता नहीं है। भूयसामनष्ठितिरितिनदाप्रयाणमुपसहारान्महत्याग ।। ७५ ।। जो कहो कि भक्ति करने वाले बहुत कमों का अनुष्ठान नहीं करते सा नहीं, क्योंकि बहुन कर्म करने पालों को भी अंत समय इसा का विधान है ।। ७५ ।। अर्थात नाहे कितना ही कर्म करो जय भगवान का भत्ति बिना गति नहीं तो उस भक्ति के बिना वहत विधिपूर्वक किए हुए मा अनेक कर्म व्यर्थ ही है। लपि भक्ताधिकारे महलक्षणक्रमपरसंबंशनात ।। ७६ ।। (क्योकि थोड़ा भी भक्ताधिकार बड़े पापों का नाशक हाना है वाक भगवान को अपने शरणागलों की या नामस्मरण करने वाला के. सर्व पाणहान की प्रतिज्ञा है ।।७६ ।। नम्थानल्याइनन्यधर्मः सने शालावन ।। ७७ ।। (क्योंकि) भगवामय हान म (छाट भा) भगवधर्म अनन्य धर्म है है (और उन से सन बड़े पापो का क्षय ये जाना है। जैसा भाखा में याना का (न भीमाला में कितना भी बाल पर सत्र कुट पिस आयगी बेस ही भगवर्म से कम भी पाया सब नाशवान है)। अानन्यथान्यांपांवयन गारम्यान्मामान्यवत् ।। ७८।। नाराणयान का भा भगवांत का अधिकार है क्याकि परंपरा भक्तों का समानता है ।। ७८ ।। और ग. ग बानर न्या मनुष्य का कर और बानि के जावों को भा भक्ति से सिद्धि मिली है तथा एक विमा परभा. भाग्नगर हार कर मांतर-वासियों को नो कंवल भत्ति ही का आश्रय कर्ममाम नहा- वहां कं नाग कर्म में सिद्ध हो । अलाहविपणभावानामपि नालोके ।। ७५ ।। सा लग भाला में पक्कं नहीं है व भी भगवालाक में वास करते हैं ।। ७२ ।। अर्थात ग्राहमण, नारंग या मशा म भागने अपने जानि का पूर्ण क्रिया करो ती भी सिद्धि नहीं, कितना भी पुण्य करो श्रत में आप जान पर नगाक में माना गरना है और भक्ति करने वालों का नहीं । जो पक्कं नहीं है ये सदाना र भगवभांत में गायक हाकर अंत में भगवत्पद पाते हैं और भक्तों कर्मवश उपजी हुई जामनाला भा भक्ति में भस्म कर देती है। इसमें जमरत जी का उपाख्यान प्रमाण है। क्रमैकगत्युपगत्तेस्तु ।। ८० ।। झवा क्रममात्र म गात तो क्रिया का है ।। ८० । अर्थात "बहना जन्मनामन्त ज्ञानवान मां प्रपकते. 'नफाडनममामदनना यानि परा गति" इत्यादि वाक्यों में क्रम से जो सिद्धि पानी कही है वह सुकर्म करने वाना का। भवना को ना एक भक्तिीस सवः गति होती है। उत्क्रान्निस्मृतिवाश्यशेषात् ।। ८१ ।। नाकि भगवाश्य में भक्तों को एक सब क्रमों का उल्लपन कर सिद्धि मिलना कहा है ।। ८१ ।। ज्यान "सर्वधर्मान् परित्यज्य मामेकं शरणं पर इस वाक्य से भगवान ने अपने भक्त के अन्य अमकभीर क्रम प्राप्त उनकं गतियों की श्रीमुख से आप ही उपेक्षा का है भार ९ अध्याय में अनेक प्रकार के मकर्म दयानि कह कर भी ३०॥३१॥३२॥३३ १३४ शशाकों में "हमारा भक्त कैसा भी दुराचारी हो उसको माजी समझना" कहा है और अनेक जन्म नया कानिकों को उपनंघन करके उसी सद्यगति की और उस गांत के फिर कभी न नाश होने की "निप्र शश्वत" इत्यादि शश्न कथनपूर्वक प्रतिज्ञा की है । महापानकिनां त्वा ।। २ ।। जि कहा कि जो बड़े बड़े पापो साग है वे भी क्रम को उल्लघन करके परम पद पावेंगे इस पर कहते हैं कि) महाशक्रिया की भक्ति तो आनों की भक्ति में है ।। १२ ।। अर्थात पाणी लोग अपने पाप की निवृत्ति के हनु भक्ति करते हैं, उन की भक्ति सहजा नहीं । जिनकी भक्ति सहा है। उनके पापों के हेतु तो "पिनम्मुद्रानारा" इत्यादि गश्य जागरुक ही हैं मैकान्तभाषागीतार्थप्रत्याभिज्ञानात ।। ८६ ।। "अनन्याउदनवन्तो म Pok*** भारतेन्दु समग्र ८५८