पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/९०१

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कहे है ये तीन भांति के हैं. एक तो वे कि जैसे किसी कारण से हो जय, इसरे जिनके करने का नित्य स्वभाव पादोदक में चरण ही की मुख्यता की भक्ति अपने काम केइत है और शानी की भक्ति केवल प्रेम से है।

कीर्तनादिक गोणी भक्तियों के अतिरिक्त परा भक्ति सिद्धि। उपायांतर कहते हैं क्योंकि यज्ञादिक में से बहुत काल में अनेक लोकप्राप्ति द्वारा क्रमशः ईश्वर-लोक-प्राप्ति के कष्ट-निवारण के हेतु सब कमों का समर्पण सहब उपाय है। ध्याननियमस्तु दृष्टसोकर्यात् ।। ६५ ।। जिस का दर्शन अपने नेत्रों को जंचे उसी भाव से चिंतन करना यही ध्यान का नियम है ।। ६५ ।। भक्ति यदि स्वाभाषिक होती है तो उत्तमा होती है क्योंकि हठ से की भक्ति चिरकाल में सिद्ध होती है । इस हेतु कहते है कि भगवान के स्वरूप के ध्यान में हल करके कोई नियम न मानना, दो स्वरूप अपने नेत्रों को स्वभावतः जन उसी का ध्यान करना । तशिः पूजागामितरेषानेवम् ।। ६६ ।। 'यान्तिमगाजिनोपि मां" इस नहीं ।। ६६ ।। अर्थात् यज्ञादिक में कामना और हिमालि अनेक दोष है. इस से भगवान को यान किलो और इस वाक्य में गजन शब्द भगवत्यूजन के अर्थ है, इतर यागादिको के लिये कर्म मार्ग के उपायों से न करना किन्तु केवल भगवतस्वरूप की सेवा करनी । पादोदकं तु पाद्यमव्याप्ते ।। ६७ ।। भगवन्मूर्तियों के स्नान का जल ही पादोदक है, अज्याप्ति से ।। ६७ ।। अर्थात् साक्षादभगवान वा अन्य किसी अवतार के चरण का जल ही चरणाभूत है, यह ह न करना क्योकि इस समय उसकी प्राप्ति कहाँ और माननी क्योंकि श्रीशालिग्राम का स्नानका भी पायोक कहावेगा । स्वयमर्पित ग्राहयनाविशेषाय ।। ३८।। अपनी समर्पण की हुई वस्तु को आप लेना, क्योंकि विशेषता नहीं है ।। ८ ।। अपनी समर्पण की दुई यस्तु है, इस भ्रम से प्रसाद लेने में सकोच न करना क्योंकि वैष्णो भगवत्प्रसाद लेने की आशा है और उस समर्पण करने वाले में कोई विशेष हा अर्थात् यह भी वेष्णवन्तः पाती है । निमित्तगुणान्यदपेनणाचपराधेषु ज्यवस्था ।। ३९ ।। निमित, गुण और अनपेक्षा से अपराधों की अवस्था है ।। ६० ।। भगवत्सेवा में जो अत्तोस अपराध है और तीसरे बे को भूले से ही अवस्था अलग है जैसे अनिच्छापराध से निमित्तापराध और पजादेवानमन्यथाहि वैशिष्टपम ।। ७०।। पत्रपुष्पादि का दान सर्व समान समान फल रूपवयोकि भगशन को पत्र का तान और स्वर्ण कोटि का दान केनों समान संतोष करने वाला है। मुक्तस्वात्परहेतुश्च भाशत्व क्रियासु श्रेयस्यः ।।७१ ।। ये भक्तियाँ पराभक्ति का कारण और पुण्यरूप है इससे सब क्रियाओं में श्रेयस्कर है ।।७१ ।। गौण विध्यामितरेण स्तुत्यर्थत्वात साहचर्यम् ।। ७२ ।। (गीताजी के अ. ७ असो. ६ में . जिज्ञास. अयार्थी और ज्ञानी चारो प्रकार के भक्त कहे हैं, उन गारो की सामना नहीं, गोणी भात Sineteen को जाता की भक्ति के साथ लिखा भक्ति अपनी विपति मिटाने के हेतू है. जिज्ञासु की जानने के हेतु ओर यी पहिरन्तरस्थमुभयमवेष्टिलवत ।। ७३ ।। (यपि कीतनादिक भक्तियां परा भक्ति की आग है परंभु यदि कंगनादि किसी में विशेष रुचि होय तो उस भक्ति में उस भक्ति की मुन्नता होगी क्योकि) पराभक्ति के भीतर की भक्ति भी कही कहीं बाहर अर्थान स्थतन गिनी जाती है। जैसे यज्ञ की अग्रेष्टि यत के अतर्गत और बहिर्गत भी है जैसे पापय यज्ञग में हस्पतिसष आ जाता है परनु वृहस्पतिसस की विशेष महिमा बेद में अलंग भी लिली है ।। ७३ ।। स्मृतिकोल्यो: कथादेश्वाती प्रायश्चितभावात् ।। ७४ ।। कथादिकों का स्मरण और कीर्तन आत भवन में प्रायश्विन भाव से है।।७४ ।। अर्थात् आतखोग अपने HY भक्ति सूत्र वैजयंती ५७ निमित्तापराध से नित्यापराप बढ़कर है। है ।। ७२ ।। क्योकि आत