पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/९००

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विभूति कहा है और शास्त्र में उसका निषेध है। इससे विभूतियों में भक्ति नहीं करनी । वासुदेवेोतिचन्न आकारमानत्वात् ।। ५२ ।। श्रीवासुदेष में भी विभूति की शंका नहीं करनी दयोंकि वहाँ तो चीनी की पुतली की भांति कर. पाद, मुख, उदर आदि सब आकार आनंदमय है ।। ५२ ।। प्रत्यभिज्ञानान ।। ५३ ।। (श्रीगोपालतापनी, महाभारत, श्रीभागवत आदि पुराण तथा वैष्णवनिषद' में) भगवान की परत्रहमता शापित हे ।। ५३ ।। वृष्णिपुनेठ्येीता ।। ५४ ।। विभूति में श्रीषासुदेव का कथन केवल यादवों में श्रेष्ठता के हेतु है ।। ५४ ।। एवं प्रसिधु ।। ५५ ।। इसी प्रकार श्रीरामादि प्रसिद्ध भगवदवतारों का भी निभूति में कवन केवल उस प्रकार की फिभूति में श्रेष्ठता दिखाने के हेतु है । अर्थात् जो प्रसिद्ध भगवत्स्वरूप है उनमें विभूति बुद्धि न करनी ।। ५५ ।। दूसरे अध्याय का पहिला आन्हिक समाप्त हुआ भकया भजनोपसंहासनगोण्यापरायैतद्वेलुल्यात् ।। ५६ ।। भक्ति से यहाँ गीण भक्ति ना क्योंकि उसका अर्थ भजन अर्थात् सेश है और यह भक्ति परा में हेतु है ।। ५६ ।। क्योकि गौण भक्ति से मुन्म भक्ति के साधन के बाधक दूर होते है और परा भक्ति सिद्ध होती है । राणार्थप्रचीनिसाहचर्यास्तरेषाम् ।। १७ ।। गला १. ९ श्लोक १४ में कीर्तन के साथ कटे हुए नमस्कारादि कर्मों का फल केवल राग अर्थात परा भक्ति है क्योंकि "स्थाने हणावेश' इस श्लोक में कीर्तन का फल अनुराग कला है और पूर्वोक्त १४ श्लोक में कीर्तन के साथ नमनादिक का कथन है इससे नमनादिक का भी यही फल है ।। ५७ ।। अन्तराले नु शेषाः स्युरुप स्यादी न कण्डत्यात् ।। ५८।। गीता जी के ९ अध्याय में १३ श्लोक से २९ श्लोक तक और जितनी भक्तियों कही है वह बीच की है वोफि उपासनांद परा भक्ति की साधक है।। ताभ्यः पावित्र्यमुपकमान् ।। ५९ ।। इन गौण भकिग से पवित्रता अर्थात् मन की शुद्धता होती है क्योंकि उसी अध्याय के दूसरे श्लोक में इनको पवित्र कहा है ।। ५९ ।। तासु प्रशनयोगात् फलाधिक्यमेकं ।। ६० ।। कोई कोई प्राचार्य कहते है कि इन गोण भक्तियों ही में प्रधानता के कारण फस अधिक है ।।१०।। नान्नेति जैमिनिः सम्भशारा ।। ६१ ।। चैमिनि भावार्य का मत है कि उनको मुख्यता नहीं है, वहाँ उनका नाममात्र कथन है ।।६१।। अर्थात पूर्वोक्त श्रीगीता जी के इलाकों में उनच मुखाता करके नहीं कथन है वरच गिनती गात्र गिगायी है। अनगप्रोगाना यथाकालयम्भ गृहानिषत् ।। ६२ ।। माँ अग के प्रांगों पर के भाँत यथाकाल संभव है । ६२ ।। अर्थात जैसे घर में पहिले नव नद द्वार व छत इत्यादि का प्रयोग एक के अनने पर गचाकल होता है ये ही परा भक्तियों को साधन भा भक्ति स यथासमय प्रयोग होता है क्योकि पनि गुग अयण करेगा लज अदा होगी तन भजेगा, सेवेगा इत्यादि अगर भक्तियों के पीछे परा भक्ति पायेगा । देवराटेरोपि वली ।। ६३ ।। ईश्वर यष्टि के हेतु एक साधन करने का भी वाली है ।। ६३ ।। अर्कत भजन वा कीर्तन शेई एक स्वधन भी दृढ़ करके जो करेगा तो उसकी उस एक सघन पर दृढ़ता ईश्वर के तुष्टि की कारण खेगी अर्थात परा भक्ति को कारण होगी क्योकि परा भक्ति स्वसाध्या नहीं है केवल ईश्वर के प्रसन्न होने से मिलती है। अबन्यो । पेणस्य सुखम् ।।४।। अर्पण शासन यंत्र है।। ४ ।। भावान शुभाशुभ कमों का अबण अबंध का द्वार है । यह Store ॥5॥ भारतेन्दु समग्र ८५६ Maratha