पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/८६४

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च परान्न परशय्यां परवाद परांगनां । सदा च वर्जयेत्प्राज्ञो कार्तिके तु विशेषतः ।। ४५ ।। वेद देव द्विजानां च गुरु गो व्रतिनान्तथा । स्वराजोपहतां निन्दां वर्जयेत्कार्तिके व्रती ।। ४६ ।। दूसरो का अन्न, दूसरों की सेज, दूसरों की निन्दा, दूसरों की स्त्री इनको सदा बचाना चाहिए, कार्तिक में विशष करके । वेद देव, तीनों वर्ण अर्थात् ब्राहमण, क्षत्री, वैष्य, गुरू. गऊ, व्रत करने वाले जिन का राज्य अर्थात् सम्पदा नाश हो गई है इन लोगों की निन्दा नहीं करना । इस का भावार्थ यह है कि कार्तिक में जहाँ तक बन सके दूसरों का अन्न नहीं खाना और दूसरों की शैया से बचना अर्थात् दूसरों की स्त्री से बचना, दूसरों की निदा नहीं करना । अब इस काल में लोग लोगों की निंदा बहुत करते हैं और दूसरों की निंदा करना महापाप है क्योंकि जो लोग दूसरों की निंदा करते हैं वे लोग जिनकी निंदा करते हैं उनका सब पाप आप ले लेते हैं तथा दूसरों की स्त्री को कुदृष्टि से देखना कार्तिक में विशेष करके वर्जित है और अब कार्तिक में बहुत स्त्रियों के नहाने जाने से कितने ही पुरुष भी सबेरा भया कि कार्तिक नहाने के बहाने उनका दर्शन करने जाया करते हैं उन लोगों को चाहिए कि इस वाक्य को कान खोल कर सुनें । कार्तिक के व्रत और उसके नेम लिख के अब कार्तिक स्नान की विधि और मंत्रादिक लिखते हैं जिसका प्रमाण और विशेष विधि पुराणसारोदार, पुराणसमुच्चय, निर्णयसिंधु, स्कंदपुराणांतर्गतकार्तिकमाहात्म्य, पद्मपुराणांतर्गत कार्तिकमाहात्म्य, ब्रह्मपुराण आदिक ग्रंथों में लिखा है । विशेष करके इस का विस्तारपूर्वक विधान सनत्कुमारसंहिता के कार्तिक माहात्म्य में है, जिसमें से आवश्यक कर्म यहाँ पर लिखे जाते हैं । प्रात: काल उठ के धर्म चितवन करके भगवान का ध्यान करना, जैसा सनत्कुमारसंहिता में ध्यान लिखा है । प्रातःस्मरामि भवभीतिमहार्तिशान्त्यै नारायणं गरुडवाहनमब्जनाभं । ग्राहाभिभूतवरवारणमुक्तिहेतुं चक्रायुधं तरुणवारिजपत्रनेत्रम् ।। ४७ ।। प्रातर्नमामि मनसा वचसा च मूर्ना पादारविदयुगलं परमस्य पुंस: नारायणस्य नरकार्णवतारकस्य पारायणप्रवणविप्रपरायणस्य ।। ४८।। प्रातर्भजामि भजतामभयंकरं तं प्राक सर्वजन्मकृतपापभयापहत्यौ । योग्राहवक्त्रपतितांघ्नि गजेंद्रघोरं शोकात्तिनाशनकरोधृतशंखचक्रः ।। ४९ ।। श्लोकत्रयमिदम्पुण्यं प्रात: प्रातः पठेन्नरः । लोकत्रयगुरुस्तस्मै दद्यादात्मपदं हरिः ।। ५० ।। और भी जो कुछ हो सकै भगवान का स्मरण करके अपने गुरु का ध्यान करना । यथा गाग्यो ज्ञानमुद्रापरं ध्यायेत् श्रीगुरु स्वस्तिकामनं । ध्यात्वा कृष्णं पर ध्यायेत् भक्त एकाग्रमानसः ।। ५१ ।। किशोर कामल श्याम वशीवेत्रविभूषितं । एवं कृत्वा हरेनिं पुनर्गच्छेदारस्थलम् ।। ५२ ।। पलथी मारे बैठे ज्ञानमुद्रा से उपदेश कर रहे हैं ऐसा अपने श्रीगुरु का ध्यान करके फिर श्रीकृष्णचंद्र का ध्यान करना । कोमल अंग किशोर स्वरूप श्यामसुंदर वंशी छड़ी धारण किए ऐसे श्री भगवान का ध्यान करके सिर महादेव इत्यादिक देवता, गंगादिक नदी, नारदादि ऋषि, पृथ्वी, सप्तसमुद्र, नवग्रह इत्यादिक का ध्यान करके, वैष्णवन का ध्यान करके अपना हाथ देखना व दूब, ऐना, सोना, गऊ इत्यादिक मंगल-वस्तुओं को देख भारतेन्दु समग्र ८२०