पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/७४०

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

Ft तक बसते थे । श्रीमान जॉन म्यार साहब ने लाहौर के चीफ पंडित पंडित राधाकृष्ण को जो पत्र लिखा है उसमें मुक्त कंठ से उन्होंने स्थापन किया है कि जहाँ तक मैंने प्राचीन वेदादिक पुस्तकें पढ़ीं, उनसे मुझे पूरा निश्चय है कि आर्य लोग पहले इन्हीं देशों में बसते थे । ऋग्वेद संहिता, दशम मंडल, ७५ सू. ५ ऋक 'इम में गंगे यमुने सरस्वती शुतुद्रि स्तोम सचता परुष्ण्या आसिक्त्या मरुवृधे वितस्तया कीये शृणुयासुषोमया ।' ६ मंडल सू. ४५ ऋ. ३१ 'अधिवः पर्णानं वर्षिष्ठे मूर्धन्नस्थात उसकक्षो न गांग्य: ।' १० मंड. सू. ७५ ऋ और ५ में ७२ सू. ऋ. १७ 'सप्तमे सप्तशाकिन एकमेकाशता ददु : यमुनायामश्रुतमुद्राधोगव्यं मृधे निराधो अशव्या मधे : '। मंड ३ सू ३३ . १ 'प्रपवतानामुशर्ता उपस्था दश्व इव विषिते हासमाने गावेव शुभे मातरारिहाणे विपाट छुतुद्री पयसा जवेते ।' ३ मंड २३ सू. ४ ऋ. 'नित्वादधेवरे आपृथिव्या इलायास्पदे सुदिनत्वो अन्हाम् दृषद्वत्यां मानुष आपयायां सरस्वत्यां रेवदग्नो दिदीहि ।' ६ मंड ६१ सू. मृ.२ 'इयंशुष्मेभिविसखाइदारुजत सानुगिरीणां तविषेभिरुम्मिभि : पारावतघ्नीमवसे सुवृत्तिभि : सरस्वतीमाविवासेमधीतिभि:" इत्यादि श्रुतियों में गंगा, यमुना, व्यास, सतलज, सरस्वती इत्यादि नदियों की महिमा कही है और ऋग्वेद में पहले और दूसरे मंडल में कई ऋचाओं में सरस्वती की महिमा कही है । यास्क ने अपने निरुक्त में इन ऋचाओं के अर्थ में विश्वामित्र ऋषि के सतलज और व्यास के मुहाने पर यज्ञ करने का और इन नदियों के स्तुति करने का प्रकरण लिखा है । । और कीकट देश तथा अन्य प्रदेश और इत्यादि प्रदेश और गोमती इत्यादि नादयों क जो कही श्रुतियों में नाम आ गये हैं वे परस्पर विरुद्ध होने के कारण तादृश प्रमाणीभूत नहीं होते । इससे इस बात को हम पूर्ण रूप से प्रमाणित कर चुके कि आर्य लोगों के निवास का स्थान पंजाब से लेकर यमुना के किनारे तक के देश हैं तो इससे वहाँ के प्राचीन निवासियों को यदि हम परम आर्य कहें तो क्या हानि है। अब इस बात का झगड़ा रहा कि ये कौन वर्ण हैं तो हम साधारण रूप से कहते हैं कि ये क्षत्री है। क्षत्री से खत्री कैसे हुए इस में बड़ा विवाद है । बहुत लोगों का तो यह सिद्धांत है कि पंजाब के लोग क्ष उच्चारण नहीं कर सकते, इससे ये क्षत्री से खत्री कहलाये । कोई कहते हैं कि जब परशुराम जी ने निक्षत्र किया तब पंजाब देश में कई बालक खत्री कहकर बचा लिये गये थे । वे ब्राहमण, वैश्य और शूद्रों के घरों में पले थे और अब उन्हीं से खत्री, अरोड़े, माटिये इत्यादि अनेक उपजाति बन गई और उनके आचरण भी अपने अपने पालकों के अनुसार अलग-अलग हो गये । तीसरे कहते हैं कि क्षत्री और खत्री से भेद राजा चंद्रगुप्त के समय से हुआ क्योंकि चंद्रगुप्त शुद्र के पेट से था और जब उसने चाणक्य ब्राहमण के बल से नंदों को मारा और भारतवर्ष का राजा हुआ तो सब क्षत्रियों से उसने रोटी और बेटी का व्यवहार खोलना चाहा तब से बहुत से क्षत्री अलग होकर हिमालय की नीची श्रेणी में जा छिपे और जब उसने क्षत्रियों का संहार करना आरंभ किया तब से ये सब क्षत्री खत्रियों के नाम से बनिये बन कर बच गये । कोई कहते है कि ये लोग हैं तो क्षत्री पर कलजुग के प्रभाव से वैश्य हो गये हैं क्योंकि कलजुग के प्रकरण में लिखा है कि "वैश्य वृत्यातु राजान :" । कोई ऐसा भी निश्चय करते हैं कि किसी समय सारे भारतवर्ष में जैनों का मत फैल गया था । तब सब वर्ण के लोग जैन हो गये थे, विशेष करके वैश्य और क्षत्री । उन में से जो क्षत्री आबू के पहाड़ पर ब्राहमणों ने सरकार देकर बनाये वे तो क्षत्री हुए और उन लोगों से सैकड़ों वर्ष पीछे जो क्षत्री जैन धर्म छोड़ कर हिंदू हुए वे खत्री काये और क्षत्रियों के पंक्ति से न मिले । गुरु गोविंद सिंह ने अपने ग्रंथ नाटक के दूसरे तीसरे चौथे पाँचवे अध्याय में लिखा है कि "सब खत्री मात्र सूर्यवंशी हैं । रामजी के दो पुत्र लव और कुश ने मद्र देश के राजा की कन्या से विवाह किया और उसी प्रांत में दोनों ने दो नगर बसाये । कुश ने कसूर, लव ने लाहौर । उन दोनों के वंश में कई सौ वर्ष लोग राज्य करते चले आये। एक समय में कुशवंश में कालकेतु नामा राजा हुआ और लव वंश में कालराय । इन दो राजाओं के समय में दोनों वंशों से आपुस में बड़ा विरोध उत्पन्न हुआ । कालकेतु राजा बलवान था, उसने सब लववंशी क्षत्रियों को उस प्रांत से निकाल दिया । राजा कालराय भागकर सनौड देश में गया और वहाँ के राजा की बेटी से विवाह किया और उससे जो पुत्र हुआ उस का नाम सोढ़ीराय रक्खा । उस सोढ़ीराय के वंश के क्षत्री सोढ़ी कहाये । कुछ काल बीते जब सोढ़ियों ने कुश वंशवालों को जीता तो कुश वंश के भाग कर काशी में चले आये और वे लोग वहाँ रह कर वेद पढ़ने लगे और १. मनु ने भी इन्ही को पुण्य देश कहा है "सरस्वती दृषद्वत्योदेवनद्योर्यदन्तर' 'कुरुक्षेत्रं च मतस्याश्च पांचालाः शूरसेनकाः" । भारतेन्दु समग्र ६९६