पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/७१२

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दिल्ली दरबार दर्पण सब राजाओं की मुलाकातों का हाल अलग अलग लिखना आवश्यक नहीं, क्योंकि सब के साथ वहा मामूली बातें हुई। सब बड़े बड़े शासनाधिकारी राजाओं को एक एक रेशमी झडा और सोने का तगमा मिला । झडे अत्यंत सुंदर थे । पीतल के चमकीले मोटे मोटे डंडों पर राजराजेश्वरी का एक मुकुट बना था और एक एक पटरी लगी थी जिस पर झंडा पाने वाले राजा का नाम लिखा था और फरहरे पर जो डंडे से लटकता था स्पष्ट रीति पर उनके शस्त्र आदि के चिन्ह बने हुए थे । झंडा और और तगमा देने के समय श्रीयुत वाइसराय ने हरएक राजा से ये वाक्य कहे :- "मैं श्रीमती महारानी की तरफ से यह झंडा खास आप के लिये देता है, जो उन के हिंदुस्तान की राजराजेश्वरी की पदवी लेने का यादगार रहेगा । श्रीमती को भरोसा है जब कभी यह झंडा खुलेगा आप को उसे देखते ही केवल इसी बात का ध्यान न होगा कि इंगलिस्तान के राज्य के साथ आप के खैरखाह राजसी घराने का कैसा दृढ़ संबंध है वरन् यह भी कि सरकार की यही बड़ी भारी इच्छा है कि आप के कुल को प्रतापी, प्रारब्धी और अचल देखे । मैं श्रीमती महारानी हिंदुस्तान की राजराजेश्वरी की आज्ञानुसार आप को यह तगमा भी पहनाता हूँ । ईश्वर करे आप इसे बहुत दिन तक पहिने और आप के पीछे यह आप के कुल में बहुत दिन तक रह कर इस शुभ दिन की याद दिलावे जो इस पर छपा है।" शेष राजाओं को उन के पद के अनुसार सोने या चाँदी के केवल तगमे ही मिले । किलात के खाँ को भी कडा नहीं मिला, पर उन्हें एक हाथी, जिस पर ४००० की लागत का हौदा था, जड़ाऊ गहने, घड़ी, कार चोबी, कपड़े, कमखाब के थान वगैरह सब मिला कर २५००० की चीजें तुहफे में मिली । यह बात किसी दूसरे के लिये नहीं हुई थी । इस के सिवाय जो सरदार उन के साथ आए थे उन्हें भी किश्तियों में लगा कर दस हजार रूपये की चीजें दी गई । प्राय : लोगों को इस बात के जानने का उत्साह होगा कि खाँ का रूप और वस्त्र कैसा था । निस्संदेह जो कपड़ा खाँ पहने थे वह उन के साथियों से बहुत अच्छा था तो भी उन की या उन के किसी साथी की शोभा उन मुगलों से बढ़ कर न थी जो बाजार में मेवा लिये घूमा करते हैं । हाँ, कुछ फर्क था तो इतना था कि लंबी गझिन दाड़ी के कारण खाँ साहिब का चिहरा बड़ा भयानक लगता था । इन्हें झंडा न मिलने का कारण यह समझना चाहिये कि यह बिल्कुल स्वतंत्र हैं। इन्हे आने और जाने के समय श्रीयुत वाइसराय गलीचे के किनारे तक पहुंचा गए थे, पर बैठने के लिये इन्हें भी वाइसराय के चबूतरे के नीचे वही कुर्सी मिली थी जो और राजाओं को । खां साहिब के मिजाज में रूखापन बहुत है । एक प्रतिष्ठित बंगाली इन के डेरे पर मुलाकात के लिये गए थे । खां ने पूछा, क्यों आए हो ? बाबू साहिब ने कहा, आप की मुलाकात को । इस पर खाँ बोले कि अच्छा, आप हम को देख चुके और हम आप को, अब जाइये । बहुत से छोटे छोटे राजाओं की बोलचाल का ढंग भी जिस समय वे वाइसराय से मिलने आए थे, संक्षेप के साथ लिखने के योग्य है । कोई तो दूर ही से हाथ जोड़े आए, और दो एक ऐसे थे कि जब एडिकाँग के बदन झुका कर इशारा करने पर भी उन्होंने सलाम न किया तो एडिकांग ने पीठ पकड़ कर उन्हें धीरे से झुका दिया । कोई बैठ कर उठना जानत ही न थे. यहां तक कि एडिकांग को "उठो कहना पड़ता था । कोई झड़ा, तगमा सलामी और खिताब पाने पर भी एक शब्द धन्यवाद का नहीं बोल सके और कोई विचारे इन में से दो ही एक पदार्थ पाकर ऐसे प्रसन्न हुए कि श्रीयुत वाइसराय पर अपनी जान और माल निछावर करने को तैयार थे । सब से बढ़ कर बुद्धिमान हमें एक महात्मा देख पड़े जिन से वाइसराय ने कहा कि आपका नगर तो तीर्थ गिना जाता है, पर हम आशा करते है कि आप इस समय दिल्ली को भी तीर्थ ही के समान पाते हैं । इस के जवाब में वह बेधड़क बोल उठे कि यह जगह तो सब तीर्थों से बढ़कर है जहाँ आप हमारे "खुदा' मौजूद है । नवाब लुहारू की भी अंगरेजी में बात चीत सुन कर ऐसे बहुत कम लोग होंगे जिन्हें हसी न आई हो । नवाब साहिब बोलते तो बड़े धड़ाके से थे. पर उसी के साथ कायदे और मुहावरे के भी खुब हाथ पाँव तोड़ते थे । कितने वाक्य ऐसे थे जिन के कुछ अर्थ ही नहीं हो सकते, पर नवाब साहिब को अपनी अंगरेजी का ऐसा कुछ विश्वास था कि अपने मुँह से केवल अपने ही को नहीं वरन अपने दोनों लड़कों को भी अंगरेजी, अरबी RAKE भारतेन्दु समग्र ६६८