पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/७१

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'जग मैं सब कथनीय है सब कुछ जान्यौ जात । पै इन मैं पर प्रम नहि गरे परे को एह ।३९ पैश्री हरि अरु प्रेम यह उभय अकथ अलखात ।३५ एकगी बिनु कारने इक रस सदा समान । बंध्यो सकल जग प्रेम में भयो सकल करि प्रम । पियहि गर्न सर्वस्व जो सोई प्रेम प्रमान ।४० चलत सकल लहि प्रेम को बिना प्रेम नहि छेम ।३६ डरै सदा चाहै न कछ सहै सबै जो होय । पै पर प्रेम न जानहीं जग के ओछे नीच । रहै एक रस चाहि के प्रम बखानौ सोय ।४१ प्रेम जानि कछु जानिबो बचत न या जग बीच ।३७/ इक्कीस तोप सलामी की औअल दर्जे का काम सभी । दंपति-सुख अस विषय-रस पूजा निष्ठा ध्यान । क्रास बाथ इस्टार हुए महराज बहादुर नाम सभी । इनसों पर बखानिए शुद्ध प्रेम रस-खान ।३८ जग जस पाया मुलक कमाया किंया ऐश-आराम सभी । जदपि मित्र सुत बंधु तिय इनमें सहज सनेह । सार न जाना रहा भुलाना राम बिना बे काम मा। प्रेमाच-वर्षण (रचनाकाल -सन् १८७३) समर्पण कितव* यह प्रेमानु की वर्षा है। इससे नहाके तब मुझे छुओ, क्योंकि वह धूर्तता करने से तुम अशुद्ध हो गए हो। क्या कहूँ, बहुत कुछ कहने को जी चाहता है और लेखनी कहनी-अनकहनी सभा कहना चाहती है, पर क्या करे, अदब का स्थान है, इससे चुप है और चुप रहेगी। हाय हाय, कभी मैं इस दुष्ट लेखनी को अपने प्रान-प्यारे जीवितेश, मेरे सर्वस्व की कुछ निंदा कैसे लिखने दूंगा। और जो लिखा भी हो तो क्षमा करना। यह बखेड़ा जाने दो, आज क्यों नहीं मिले ? ले इन्हीं लक्षणों से तो कुछ कहने को जी चाहता है, न कहूँगा, रूठने का डर तो सबसे बड़ा है न जैसा कुछ हूँ, बुरा भला तुम्हारा हूँ लो इस वर्षा से जी बहलाओ पर प्यारे, तुम भी कभी बरसो। बरसि नदी नद सर समुद पूरे करना-भौन। हम चातक लघु चंचु-पुट पूरन में श्रम कौन ॥ सावन हरिआरी अमावस तुम्हारा चातक गुरु पुण्य सं. १९३० हरिश्चंद्र प्रेमाच-वर्षण भइ सखि साँझ फूलि रहि बन द्रुम बेली चले किन कुंज कुटीर । हरे सरोवर भए सुनहरे छिरकी मनहुँ अबीर । झुकि रहे रंग रंग के बादर मनु सुखए बहु चीर । जानि बसेरा-समय कुलाहल करत कोकिला कीर ।

धूत, छली

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प्रेमाश्रु वर्षण ३१