पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/७०५

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तत्पकाञ्चनगौरागि राधेवृन्दावनेश्वरि। वृषभानुसुतेदेवि प्रणमामिहरिप्रिये॥ एक मोरी जिस का निकास बाहर की ओर उत्तर दिशा में है उस के ऊपर यह प्रशस्ति है। "सम्वत ३४ श्रीशकबन्ध अकबर महाराज श्री कर्मकुल श्री पृथीराजाधिराज वंश श्री महाराज श्रीभगवन्तदास सुत श्रीमहाराजाधिराज श्रीमानसिहदेव श्रीवृदावन जोगपीठ स्थान मंदिर कराजो श्रीगोविंददेव को काम उपरि श्रीकल्याणदास आज्ञा कारि माणिकचंद चोपड़ शिल्पकारि गोबिंददास दीलवरिकारिगरद : गोरषदासवीभवल ।।" मंदिर के चारों ओर संकीर्ण कच्चे चौक में कोई उत्तम स्थान नहीं है, केवल पूर्व द्वार की बाईं ओर कुछ थोड़ी फुलवारी है और पश्चिम द्वार की ओर अति निकट एक छत्री है । यह छत्री प्रथम नाट्य मंदिर के सामने थी, परंतु अबकी जीर्णोद्वार में परिष्कार एवं संस्कार करके पश्चिम प्रांत में एक चौतरे पर स्थापित कर दी गई । इस में चरणचिन्ह शृंगवर के बने हैं और एक स्तंभ पर लिपि है । ज्ञात होता है कि इस में किसी के अस्थि समूह सञ्चित थे, क्योंकि चरणचिन्ह का व्यवहार प्राय : ऐसे ही स्थान में होता है । दूसरे राजाओं में ऐसी रीति भी प्रचलित है पुण्य-स्थान में अस्थि सञ्चय किया जाय । "सम्वत १६९३ वरषे कातिक बदि ५ शुभदिने हजरत श्री३ शाहजहाँ राज्ये राणा श्रीअमरसिंह जी को बेटो राजाश्रीभीम जी राणी श्रीरम्भावती चौखंडी सौराई छैजी ।" बौखुमत का श्लोक जो सारनाथ की धमेख में मिला था। ७ ये धम्महितु प्रभवाहेतुतेषां तथा गता हयवदत् तेषांचयो निरोध एवंवादी महाश्रमणः । बिहार जिले में बहुतेरी प्राचीन बौध मूरतों पर यह श्लोक खुदा हुआ है, वरन् राजगृह के प्रसिद्ध जैन मंदिर में भी जो बस्ती में है एक मूर्ति पर यही श्लोक खुदा है, और इसी कारण हम उस को प्राचीन बौधमती अनुमान करते हैं। जेनरल कनिंगहाम साहिब ने जो दो हजार बरस के लगभग पुराने राजा वासुदेव की अथवा राजा वासुदेव के संवत् नब्बे में बनवाई महावीर स्वामी की मूर्ति मथुरा में पायी है उस पर ९० का अंक लिखा है । जेनरल साहिब ने जो उस मूर्ति पर से हों का छापा लिया है उस के एक (पहले) टुकड़े में (सिद्ध ओं नमो अरहत महावीरस्य. राजा वासुदेवस्य संवत्सरे ९०) लिखी है । अफसोस है कि हफों के घिस जाने के सबब इस से अधिक उस की इबारत पढ़ी ही नहीं जा सकती है। जिला गया के प्रसिद्ध स्थान देवमंगा मे एक सूर्य का मंदिर है उस पर यह श्लोक खुदा है । इस लेख से आश्चर्य होता है कि इतने दिनों का लेख वर्तमान हो । शून्यव्योमनभोरसेंद्रुकरमेहीने द्वितीयेयुगे। माघेवाण तिथौ शितै गुरुदिने, देवो दिनेशालुयं ॥ प्रारंभेदृष्टदांचयेरचयितुं सौम्यादिलायांभवो। यस्या सीत्सनराधिपः प्रभुतया लोकोविशोकोभुवि । अर्थ- दूसरे युग अर्थात त्रेता युग के १२१६००० वर्ष बीतने पर माघ शुक्ल पंचमी गुरुवार के दिन ऐलपुरूरवा जो बुध से इला में उत्पन्न हुआ था उस ने पाषाणादिकों से दिनेश अर्थात सूर्य का मंदिर बनाना प्रारंभ किया था । जब यह राज्य करता था तब इस की प्रभुता से सब प्रजा भूमि में सुखी थी। प्राचीन का सम्वत् निर्णय । माधवाचार्य लिखित किसी की टीका से राजावली ग्रंथ से उद्धृत । यह राजावली ग्रंथ किसी ज्योतिषी ने सं. १८१६ में बनाया है । इस में संवत्सर, प्रतिपदा के विधान और कालादिक का अनेक निर्णय किया है और फिर कलियुग के राजाओं का और अन्य युग के राजाओं का नाम पुरावृत्त संग्रह ६६१