पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/६९३

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बड़ा लम्बा चौड़ा और ऊंचा मंदिर बनाया और बीच में बड़ी बड़ी वेदिका बनाई (वेदिका चबूतरे को कहते हैं) यह राजा बड़ा गुणज्ञ था" इत्यादि । इससे निश्चय है कि उस की बनाई कोई वस्तु शेष नहीं रही । अब जो मणिकर्णिकेश्वर है वह एक गहिरे नीचे संकीर्ण स्थान में हैं और विश्वेश्वर और वीरेश्वर भी नए स्थानों में हैं । ऐसा अनुमान होता है कि गंगाजी आगे ब्रह्मनाल की ओर बहुत दब के बहती थी, क्योंकि अद्यापि वहाँ नीचे घाट मिलते हैं । निश्चय है कि इस राजा के पीछे भी अनेक बार घाट बने होंगे, परंतु अब जो कुछ टूटा फूटा घाट बचा है वह अहल्याबाई साहब का बनाया है। मणिकर्णिका कुण्ड की सीढ़ियां जो वर्तमान हैं वह दो सौ उनचास २४९ वर्ष की बनी हुई है और इन को नारायणदास नामक वैश्य ने (जिस का पुकारने का नाम नरैनू था) बनवाई है । यह सोमवंशी राजा बासुदेव का नाम था । यह बात इन श्लोकों से प्रगट होती है जो वहाँ एक पत्थर पर खुदे मिले हैं। व्योमाष्टषट् चन्द्रमिते शुभेब्दो मासे शुचौ विष्णुतिथौ शिवायां । चक्कार नारायणदासगुप्त : सोपानमेतन्मणिकर्णिकाया : ।।१।। जात : क्षितीवासतुल्यतेजा : सीमान्यये भूपति वासुदेवा : तस्यानुवर्ती मणिकर्णिकायाश्चकार सोपान ततिर्नरेणु : ।।२।। वासुदेवानसचिवो नरेणुरावतात्मज : । चक्रपुष्करणी तीर्थ जीर्णोद्धारमचीकरत् ।।३।। ॥काशी॥ मैं इस में काशी के तीन भाग का वर्णन करूंगा यथा प्रथम भाग में पंचक्रोश का, दूसरे में गोसाइयों के काल का, तीसरे कुछ अन्य स्फुट वर्णन । मैं पंचक्रोशी का वर्णन ऐसा नहीं करना चाहता कि जिसे देख कर लोग पंचक्रोशी की यात्रा करने चले जाय वरच मैं भगवान काल के उस परम प्रबल फेर फार रूपी शक्ति को दिखाता हूँ जिस से धैर्यमानों का धैर्य और अज्ञानों का मोह बढ़ता है । आहा ! उस की क्या महिमा है और कैसी अचिंत्य शक्ति है ? अतएव में मुक्तखंड से कह सकता हूं कि ईश्वर भी काल का एक नामान्तर है। क्योंकि इस संसार की उत्पत्ति प्रलय केवल इसी पर अंटकी है । जिस विजयी और विख्यात सिकन्दर ने संसार को जीत उसकी अस्थि कहा गड़ी है और जिस कालिदास की कविता संसार पढ़ता है वह किस काल में और किस स्थान पर हुआ ? यह किसका प्रभाव है कि अब उस का खोज भी नहीं मिलता ? काल का अतएव यदि हम प्राचीन. नवीनों से नवीन, बलवालों से बलवान, उत्पत्ति, पालन, नाश कर्ता और सर्व तन्त्रष्वतन्त्रादि विशेषणों से विशिष्ट ईश्वर को काल ही का एक नामान्तर कहैं, तो क्या दोष है। इस पंचक्रोशी के मार्ग और मंदिर और सरोवरों में से दो सौ वा तीन सौ वर्ष से प्राचीन कोई चिन्ह नहीं है और इस बात का कोई निश्चायक नहीं कि पंचक्रोश का मार्ग यही है केवल एक कर्दमेश्वर का मंदिर मात्र बहुत प्राचीन है और इस के बौदों के काल का वा इस के पीछे के काल का कहें, तो अयोग्य न होगा। इस मंदिर के अतिरिक्त और कोई प्राचीन चिन्ह नहीं, पर हां पद पद पर पुराने बौद्ध वा जैन मूत्तिखंड, पुराने जैन मंदिरों के शिखर, दासे, खभे और चौखटें टूटी फटी पड़ी हैं । क्यों भाई हिंदुओ ! काशी तो तुम्हारा तीर्थ न है। और तुम्हार वेद मत तो परम प्राचीन है । तो अब क्यों नहीं कोई चिन्ह दिखाते जिस से निश्चय हो कि काशी के मुख्य देव विश्वेश्वर और विदुमाधव यहाँ पर थे और यहाँ उन का चिन्ह शेष है और इतना बड़ा काशी का क्षेत्र है और यह उस की सीमा और यह मार्ग और यह पंचक्रोश के देवता हैं । बस इतना ही कहो भगवते कालाय नम: । हमारे गुरु राजा शिवप्रसाद तो लिखते हैं कि केवल काशी और कन्नौज में वेदधर्म बच गया था" पर मैं यह कैसे कहूँ, वरच यह कह सकता हूँ कि काशी में सब नगरों से विशेष जैन मत था और यहीं के लोग दृढ़ जैनी थे, भवतु काल जो न करे सब आश्चर्य है । क्या यह संभावना नहीं हो सकती कि प्राचीन काल में जो हिंदुओं की मूर्तियाँ और मंदिर थे उन्हीं में जैनों ने अपने काल में अपनी मूर्तियाँ बिठा दीं ? क्यों नहीं । केवल कुछ क्षण दिल्ली के सिंहासन पर एक हिंदू बनिया बैठ गया था उतने ही समय में मसजिदों में हिंदुओं ने सिंदूर पुरावृत्त संग्रह ६४९