पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/६६६

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
  • 20

परोपकार से रहित थे और अपनी बुद्धि से कोई उत्तम कृत्य नहीं किया । इसी कारण इनकी कीर्ति का उदय और अस्त अंतकाल में हुआ तथापि यह मनुष्य अति उच्च पर को प्राप्त कर के पतन हुआ और परिणाम अत्यंत श्री मन्महाराज जंगबहादुर का बैकुंठवास होना सब पर विदित है और बहुत से समाचारपत्रों में यह समाचार प्रकाश हो चुका है, परंतु हमारी लेखनी इस शोच से काले आँसुओं से न रुदन कर यह चित्त नहीं सहन कर सकता । बादशाह रंजीत सिंह को सब लोगभारतवर्ष का अंतिम मनुष्य कहते थे, परंतु महाराज जंगबहादुर ने अपने अप्रमेय बल से उन्हीं लोगों से यह कहलाया कि महाराज जंगबहादुर भी हिन्दुस्तान में एक मनुष्य हैं । पूवोक्त महाराज ने १८७७ फरवरी की पच्चीसवीं तारीख को वीर प्रसू-भारतभूमि को पुत्रशोक दिया । यों तो अनेक जननी-यौवन-कुठार नित्य जनमते और मरते हैं, पर यह एक ऐसा पुरुष मरा कि भारतवर्ष के सच्चे हितकारी लोगों का ची टूट गया । भादों की गहरी अंधेरी में एक दीप जो टिम कर को झिलमिला रहा था. वह भी बुझ गया । क्या इस अभागिन भारतमाता को फिर ऐसे पुत्र होंगे ? नीति के तो मानो ये मूर्तिमान अवतार थे। ऐसे प्रदेश में रह कर जो चारों ओर भिन्न-भिन्न राज्यों से घिरा हो. स्वामी की उन्नति साधन करते हुए अस पास के कठिन महाराजों को प्रसन्न रखना नीति सूत्र के परम सूत्रधार का काम है । हम लोगों के भाग्य ही ऐसे हैं; यह रोना कहाँ तक रोएँ। पूर्वोक्त महाराज प्रतिवर्ष की भांति दौरा करते हुए शिकार खेलते थे कि एकाएक सुगौली में जो पहुंचे तो रोगाक्रांत हो गए । कहते हैं कि उबांत और दस्त होने से एक साथ बहुत व्याकुल हो गए । और उसी समय कहारों को आज्ञा दी कि बाघमति गंगा पर पालकी ले चलो । बड़ी महारानी महाराज के साथ थीं और उन्होंने अत्यंत सावधानी से अपने जगत विख्यात प्राणपति की उभयलोकसाधिनी अतिम सेवा की । कहारों के बदले पालकी क्षत्रियों ने उठाई थी । जब नदी पर सवारी पहुंची तब दानादिक कर के महाराज ने इस असार संसार का त्याग किया । उन के भाई जनरल रणोद्दीप सिंह बहादुर उसी समय काठमांडू गए और महाराज से एकांत में यह शोक समाचार कहा । महाराजाधिराज ने उसी समय उन को महाराजगी का पद और उनके भाई को जो जो अधिकार प्राप्त थे सब दिए । महाराज राणोद्दीप सिंह ने बाहर आकर चालीस हजार सेना में से बीस हजार को बाहरी और सीमा के प्रांतों पर और बीस हजार को नगर के चारों ओर उपस्थित रहने की आज्ञा दिया, जिससे किसी प्रकार के उपद्रव की शंका न हो । इस सेना भेजने की आज्ञा केवल स्वकीय रक्षा के निमित्त थी । राजधानी में दो दिन तक यह समाचार छिपा रहा. दूसरी रात्रि को एक साथ यह वज़पात या समाचार नगर में फैल गया जिस से सारी रानी और दो छोटी रानी अत्यंत प्रसन्नता पूर्वक सती हुई । कहते हैं कि जिन रानियों से विशेष प्यार था और सदा महाराज के साथ सती होना प्रकाश करती थीं वे न सती हुई और इन दोनों छोटी रानियों से प्रकाश में प्रेम विशेष नहीं था और ये सती हुई । कहाँ है और देश की स्त्रियाँ, आवै, और आँख खोल कर भारतभूमि का प्रेम और पातिवत देखें और लाज से सिर झुका लें । १२. जज्ज द्वारकानाथ मिश्र स्वर्गीय आनरेबुल द्वारकानाथ मित्र ने सन १८३१ में हुगली जिला के अंतर्गत आपता से एक कोस दूर अनुनाशी गाँव में एक साधारण हुगली और हबड़ा की कचहरी के मुख्तार विश्वनाथ मिव के घर जन्म लिया था । बंगाली पाठशाला और हुगली ब्रांच स्कूल में पढ़कर हुगली कालेज में इन्होंने अंगरेजी विद्याध्ययन करके अपनी बुद्धि के चमत्कार से सब शिक्षकादिकों को अचभित किया । ये अंगरेजी भाषा की पारंगतता के अतिरिक्त हिसाब किताब भी बहुत अच्छी भांति जानते थे । हुगली कालेज से ये हिंदू कालेज में आए. जब इन के शील, औदार्य, चातुर्य, स्वातंत्र्य इत्यादि गुण सब छोटे बड़े के चित्त पर भली भांति खचित हो गये थे । हुगली कालेज में मुख्य छात्रवृत्ति पाना तथा अपने पहिले ही लेख पर पारितोषिक पाना, कौन्सिल आफ एजुकेशन के रिपोर्ट में इन की स्थिति का लिखा जाना, और कलकत्ता युनिवर्सिटी के फेलोशिप के हेतु इन का चुना जाना ही इन के गुणों और विद्या का प्रत्यय देता है । एक कानूनी मनुष्य के पुत्र होने के कारण इन की चित्तवृनि एक साथ कानून की ओर फिरी और उसमें योग्य क्षमता पाकर सन १८५६ में ये वकीली की परीक्षा में उत्तीर्ण हुए और उसी वर्ष के मार्च में अपना वर्तमान इंटरप्रिटर का पद छोड़कर इन्होंने सदर कचहरी में वकीली करना आरंभ ज्या । इन्होंने केवल अपने व्यय से एक औषधालय नियत किया और द्रव्यहोन छात्रों को उत्तम परीक्षा होने भारतेन्दु समग्र ६२२