पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/६५२

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गीतगोविंद के अनेक टीकाकार भी हुए हैं, यथा उदय, जो खास गोवर्द्धनाचार्य का शिष्य था और जयदेव जी से भी कुछ पढ़ा था । एक टीका उस की बनाई है और पीछे से अनेक टीका बनी है । उदयन की टीका जयदेव जी के समय में बन चुकी थी और इसमें भी कोई संदेह नहीं कि गीतगोविंद ज्यदेव जी के जीवन काल ही से सारे संसार में प्रचलित हो गया था । गीतगोविंद दक्षिण में बहुत गाया जाता है और बाला जी में सीढ़ियों पर द्राविण लिपि में खुदा हुआ है । श्री बल्लभाचार्य संप्रदाय में इस का विशेष भाव है, वरंच आचार्य के पुत्र गोसाई विट्ठलनाथ जी की इस के प्रथम अष्टपदी, पर एक रसमय टीका भी बड़ी सुंदर है, जिस में दशावतार का वर्णन रुंगार परत्व लगाया है । वैष्णवों में परिपाटी है कि अयोग्य स्थान पर गीतगोविंद नहीं गाते, क्योंकि उनका विश्वास है कि जहाँ गीतगोविंद गाया जाता है वहाँ अवश्य भगवान का प्रादुर्भाव होता है । इस पर वैष्णवों में एक आख्यायिका प्रचलित है। एक बुढ़िया की गीतगोविंद की "धीर समीरे यमुना तीरे" यह अष्टपदी याद थी । वह बुढ़िया गोवर्दन के नीचे किसी गांव में रहती थी । एक दिन वह बुढ़िया अपने बैंगन के खेत में पेड़ों को खींचती थी और अष्टपदी गाती थी, इस से ठाकुर जी उस के पीछे पीछे फिरे । श्रीनाथ जी के मंदिर में तीसरे पहर को जब उत्थापन हुए तो श्री गोसाई जी ने देखा कि श्रीनाथ जी का बागा फटा हुआ है और बैंगन के कांटे और मिट्टी लगी हुई है । इस पर जब पूछा गया तो उत्तर मिला कि अमुक बुढ़िया ने गीतगोविंद गाकर हमको बुलाया इस से कांटे लगे, क्योंकि वह गाती गाती जहाँ जाती थी मैं उस के पीछे फिरता था । तब से यह आज्ञा गोसाई जी ने वैष्णवों में प्रचार किया कि कुस्थान पर कोई गीतगोविंद न गावे । किंवदंती है कि जयदेव जी प्रति दिवस श्रीगंगा स्नान करने जाते थे । उन का यह श्रम देख कर गंगाजी ने कहा कि तुम इतनी दूर क्यों परिश्रम करते हो, हम तुम्हारे यहाँ आप आवेंगे । इसी से अजयनद नामक एक धार में गंगा अब तक केंदुली के नीचे बहती हैं। जयदेव जी विष्णुस्वामी संप्रदाय में एक ऐसे उत्तम पुरुष हुए हैं कि संप्रदाय की ग्यावस्था में मुख्यत्व कर के इन का नाम लिया गया है। यथा - विष्णुस्वामीसमारम्भां जयदेवादिमध्यगां। श्रीमद्वल्लभपय॑न्तांस्तुमीगुरुपरम्पराम् ।१ जयदेव जी का पवित्र शरीर केंदुली ग्राम में समाधिस्थ है । यह समाधि मंदिर सुंदर लताओं से वेष्ठित हो कर अपनी मनोहरता से अद्यापि जयदेव जी के सुंदर चित्त का परिचय देता है । "जयदेव जी नितांत करुण हृदय और परम धार्मिक थे । भक्ति विलसित महत्व छटा और अनुपम प्रीति व्यंजक उदार भाव यह दोनों उनके अंत:करण में निरंरतर प्रतिभासित होते थे। उन्हों ने अपने जीवन का अर्द्धकाल केवल उपासना और धर्मघोषणा में व्यतीत किया । वैष्णव संप्रदाय में इन के ऐसे धार्मिक और सहृदय पुरुष विरले ही हुए हैं" । जयदेव जी एक सत्कवि थे, इस में कोई संदेह नहीं । यद्यपि कालिदास, भवभूति, भारवि इत्यादि से बढ़कर वह कवि थे यह नहीं कह सकते, पर उनकी अपेक्षा इनको सामान्य भी नहीं कह सकते । बंगभूमि में तो कोई ऐसा सत्कवि आज तक हुआ नहीं । "ललितपद विन्यास और श्रवण मनोहर अनुप्रास छटा निबंधन से जयदेव की रचना अत्यंत ही चमत्कारिणी है । मधुर पद विन्यास में तो बड़े कवि भी इस से निस्संदेह हारे जयदेव जी का प्रसिद्ध ग्रंथ गीतगोविंद बारह सर्गों विभक्त है । जिस में पूर्व में श्लोक और फिर गीत क्रम से रक्खे हैं । इस ग्रंथ में परस्पर विरह, दूती, मान, गुण-कथन और नायक का अनुनय और तत्पश्चात् मिलन यह सब वर्णित है । जयदेव जी परम वैष्णव थे । इस से उन्होंने जो कुछ वर्णन किया अत्यंत प्रगाढ़ भक्ति पूर्ण हो कर वर्णन किया है । इन्होंने इस काव्य में अपनी रसशालिनी रचना शक्ति और चित्तरंजक सद्भाव-शालित्व का एक शेष प्रदर्शन दिया है । पंडितवर ईश्वरचंद्र विद्यासागर स्वप्रणीत संस्कृत विषयक प्रस्ताव में लिखते हैं "इस महाकाव्य गीतगोविंद की रचना जैसी मधुर कोमल और मनोहर है उस तरह की दूसरी कविता संस्कृत-भाषा में बहुत अल्प है । वरच ऐसे ललित पद विन्यास, श्रवण मनोहर, अनुप्रास छटा और प्रसाद गुण और कहीं नहीं है।" वास्तव में रचना विषय में गीतगोविंद एक अपूर्व पदार्थ है । और तालमानों के चातुर्य से और अनेक रागों के नाम के अनुकूल गीतों में अक्षर से स्पष्ट बोध होता है कि जयदेव जी भारतेन्दु समग्र ६०८