पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/६५१

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20he का नाम पद्मावती था । जब यह कन्या विवाह योग्य हुई तो जगन्नाथ जी ने स्वप्न में उसके पिता को आज्ञा किया कि हमारा भक्त जयदेव नामक एक ब्राहमण अमुक वृक्ष के नीचे निवास करता है, उसको तुम अपनी कन्या दो । ब्राहमण कन्या को लेकर जयदेव जी के पास गया । यद्यपि जयदेव जी ने अपनी अनिच्छा प्रकाश किया तथापि देवादेशानुसार ब्राहमण उस कन्या को उनके पास छोड़ कर चला आया । जयदेव जी ने जब उस कन्या से पूछा कि तुम्हारी क्या इच्छा है तो पद्मावती ने उत्तर दिया कि आज तक हम पिता की आज्ञा में थे, अब आप की दासी हैं । ग्रहण कीजिए वा परित्याग कीजिए मैं आप का दासत्व न छोडूंगी । जयदेव जी ने उस कन्या के मुख से यह सुन कर प्रसन्न होकर उस का पाणिग्रहण किया । अनेक लोगों का मत है कि जयदेव जी ने पूर्व में एक विवाह किया था। उस स्त्री की मृत्यु के पीछे उदास होकर पुरुषोत्तमक्षेत्र में रहते थे । पद्मावती उनकी दूसरी स्त्री थी । इन्हीं पद्मावती के समय, संसार में आदरणीय कविता रत्न का निकष गीतगोविंद काव्य जयदेव जी ने बनाया । गीतगोविंद के सिवा जयदेव जी की और कोई कविता नहीं मिलती । प्रसन्नराघव, पक्षधरी, चन्द्रालोक और सीताविहार काव्य विदर्भ नगर वासी कौडिन्य गोत्रोदभव महादेव पंडित के पुत्र दूसरे जयदेव जी के बनाए हैं, जिनका काव्य में पीयूषवर्ष और न्याय में पक्षधर उपनाम था । वरच अनेक विद्वानों का मत है कि तीन जयदेव हुए हैं, यथा गीतगोविंदकार, प्रसन्नराघवकार और चन्द्रालोककार, जिनका नामांतर पीयूषवर्ष है पदमावती के पाणिग्रहण के पीछे जयदेव जी अपने स्थापित इष्टदेव की सेवा निवहिार्थ द्रव्य एकत्र करने की इच्छा से वा तीर्थाटन और धर्मोपदेश की इच्छा से निज देश छोड़ कर बाहर निकले । श्रीवृंदावन की यात्रा करके जयपुर या जयनगर होते हुए जयदेव जी मार्ग में चले जाते थे कि डाँकुओं ने धन के लोभ से उन पर आक्रमण किया और केवल धन ही नहीं लिया, वरच उनके हाथ पैर भी काट लिए । कहते हैं कि किसी धार्मिक राजा के कुछ भृत्य लोग उसी मार्ग से जाते थे। उन लोगों ने जयदेव जी की यह दशा देखा और अपने राज्य में उन को उठा ले गए । वहाँ औषध इत्यादि से कुछ इनका शरीर स्वस्थ हुआ । इसी अवसर में चोर भी उस नगर में आए और साधु वेश में उस नगर के राजा के यहाँ उतरे । तब राजा के घर में जयदेव जी का बड़ा मान था और दान धर्म इन्ही के द्वारा होता था । जयदेव जी ने इन साधु वेशधारी चोरों को अच्छी तरह पहचान लिया और यदि वे चाहते तो भली भाँति अपना बदला चुका लेते, परंतु उनके सहज उदार और दयालु चित्त में इस बात का ध्यान तक न आया, वरच दानादिक देकर उनका बड़ा आदर किया । बिदा के समय भी उन को बड़े सत्कार से अच्छी बिदाई देकर बिदा किया और राजा के दो नौकर साथ कर दिये कि अपनी सरहद तक उन को पहुँचा आवे । मार्ग में राजा के अनुचर ने उन चोरों से पूछा कि इन साधू जी ने और लोगों से विशेष आपका आदर क्यों किया । इस पर उन चांडाल चोरों ने यह उत्तर दिया कि जयदेव जी पहिले एक राजा के यहाँ रहते थे. इन्होंने कुछ ऐसा दुष्कर्म किया कि राजा ने हम लोगों को इन के प्राण हरने की आज्ञा दिया, किंतु दया परवश हो कर हम लोगों ने इन के प्राण नहीं लिए, केवल हाथ पैर काट के छोड़ दिया । इसी बात के छिपाने के हेतु जयदेव ने हमलोगों का इतना आदर किया । कहते हैं कि मनुष्यों की आधारभूता पृथ्वी इस अनर्थ मिथ्याप्रवाद को न सह सकी ओर द्विधा विदीर्ण हो गई । वे चोर सब उसी पृथ्वीगर्त में डूब गए और परमेश्वर के अनुग्रह से जयदेव जी के भी हाथ पैर फिर से यथावत् हो गए । अनुचरों के द्वारा यह वृत्तांत सुन कर और जयदेव जी से पूर्ववृत्ति जान कर राजा अत्यंत ही चमत्कृत हुआ । आश्चर्य घटना-अविश्वासी विद्वानों का मत है कि जयदेव जी ऐसे सहृदय थे कि उनके सहज स्वभाव पर रीझ कर लोगों ने यह गल्प कल्पित कर ली है। तदनंतर जयदेव जी ने अपनी पत्नी पद्मावती को भी वहीं बुला लिया । कहते हैं कि एक बेर उस राजा की रानी ने ईर्षा-वश पद्मावती की परीक्षा करने को उस से कह दिया कि जयदेव जी मर गए । उस समय जयदेव जी राजा के साथ कहीं बाहर गए थे । पतिप्राणा पद्मावती ने यह सुनते ही प्राण परित्याग कर दिया । जब जयदेव जी आए और उन्होंने यह चरित देखा तो श्रीकृष्ण नाम सुना कर उस को पुनर्जीवन दिया, किंतु उस ने उठ कर कहा कि अब आप हमको आज्ञा दीजिए, हमारा इसी में कल्याण है कि हम आपके सामने परमधाम जाये, और तदनुसार उस ने फिर शरीर नहीं रक्खा । जयदेव जी इससे उदास होकर अपनी जन्मभूमि केंदुली ग्राम में चले आए और फिर यावत् जीवन वहीं रहे। श्री जयदेव जी के गीतगोविंद के जोड़ पर गीतगिरीश नामक एक काव्य बना है, किंतु जो बात इस में है वह उस में सपने में भी नहीं है। चरितावली ६०७