पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/६५०

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वीरसेन सामंतसेन हेमंतसेन विजयसेन वा सुखसेन बल्लालसेन १०६६ लक्ष्मणसेन ११०१ माधवसेन ११२१ केशवसेन ११२२ लछमनिया ११२३ बल्लालसेन का समय १०६६ ई. समय-प्रकाश के अनुसार है । यदि इस को प्रमाण न मानें और फारसी लेखकों के अनुसार लछमनिया के पहले नारायण इत्यादि और राजाओं को भी माने तो बल्लालसेन और भी पीछे जा पड़ेंगे । तो अब जयदेव जी लक्ष्मणसेन की सभा में थे कि नहीं यह विचारना चाहिए । हमारी बुद्धि से नहीं थे । इस के कई दृढ़ प्रमाण हैं । प्रथम तो यह कि उमापतिधर जिसने विजयसेन की प्रशत्ति बनाई है वह जयदेव जी का समसामयिक था । तो यदि यह मान लें कि जयदेव उमापति गोवर्द्धनादिक सब सौ बरस से विशेष जिए हैं तब यह हो सकता है कि ये विजयसेन और लक्ष्मण दोनों की सभा में थे । दूसरे चंद कवि ने जिसका जन्म ११५० सन् के पास है अपने रायसा में प्राचीन कवियों की गणना में जयदेव को लिखा है। तो सौ डेढ़ सौ वर्ष पूर्व हुए बिना जयदेव जी की कविता का चंद के समय तक जगत में आदरणीय होना असंभव है । गोवर्द्वन ने अपनी सप्तशती में सेन-कुलतिलक भूपति इतना ही लिखा. नाम कुछ न दिया, किंतु उस की टीका में "प्रवरसेन नामा इति" लिखा है । अब यदि प्रवरसेन, हेमंतसेन या विजयसेन का नामांतर मान लिया जाय और यह भी मान लिया जाय कि जयदेव जी की कविता बहुत जल्दी संसार में फैल गई थी और समय-प्रकाश का बल्लाल का समय भी प्रमाण किया जाय तो यह अनुमान हो सकता है कि विजयसेन के समय में वा उस से कुछ ही पूर्व सन् १०२५ से १०५० तक में किसी वर्ष में जयदेव जी का प्राकट्य है और ऐसा ही मानने से अनेक विद्वानों की एकवाक्यता भी होती है । यहाँ पर समय विषयक जटिल और नीरस निर्णय जो बंगला और अंगरेजी ग्रंथों में है वह न लिख कर सार लिख दिया है । इससे "जयदेव चरित" इत्यादि बंगला ग्रंथों में जो जयदेव जी का समय तेरहवीं वा चौदहवीं शताब्दी लिखा है वह अप्रमाण होकर यह निश्चय हुआ कि जयदेव जी ग्यारहवीं शताब्दी के आदि में उत्पन्न हुए जयदेव जी की बाल्यावस्था का सविशेष वर्णन कुछ नहीं मिलता । अत्यंत छोटी अवस्था में यह मातृपितृबिहीन हो गए थे, यह अनुमान होता है । क्योंकि विष्णुस्वामि चरितामृत के अनुसार श्री पुरुषोत्तमक्षेत्र में इन्होंने उसी संप्रदाय के किसी पंडित से पढ़ी थी । इनके विवाह का वर्णन और भी अद्भुत है । एक ब्राह्मण ने अनपत्य होने के कारण जगन्नाथ देव की बड़ी आराधना कर के एक कन्या-रत्न लाभ किया था । इस कन्या 1 कहनं ।। मुजंगप्रयान प्रथमं भुजंगी सुधारी ग्रहनं दुती लभ्भयं देवतं जीवतेस । चर्व वेद बंभ हरी कित्ति भाषी । तृती भारती व्यास भारत्थ भाष्यौ । चर्य सुक्सदेव परीषत्त पाय। नरं पंचम्म श्रीहष सारं । छट कालिदास सभाषा सुबई । कियो कालिका मुक्ख वास सुसुदा । सतं डंडमाली उलाली कवितं । जयवेव अट्ठ कवी कविबरायं । गुरं सब्ब कब्बी लहू चंद कब्बी । साष्यौ ।। राय ।। हारं ।। जिने नाम एक अनेक जिने विश्व राख्यो बलीमंत्र सेसं ।। जिने साघ्रम्म संसार साषी ।। जिने उत्त पारत्थ सारत्य जिने उदय्यौ श्रब्य कुर्वेस नलैराय कंठं दिने पद जिने बागवानी सुबानी सुबई ।। जिने सेत बंध्योति भोज प्रबंद ।। जिने बुद्धि तारंग गांगा जिने केब कित्ति गोविंद गाय ।। जिने दर्मिय देवि सा अंग हब्बी।। कोउ चिष्टोकवीचंद भक्खो ।। सरित्तं ।। कमी कितिकित्ति उकसी मुदिक्खी ।। तिने मारतेन्दु समग्र ६०६