पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/६४१

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'बार चंद्रग्रहण में पुत्रप्राप्ति के हेतु इन्होंने यज्ञ भी किया था । कहते हैं स्वप्न में शेषजी ने दर्शन देकर इनको आज्ञा किया कि हम तुम्हारे घर में अवतार लेंगे । तदनुसार श्री रामानुजाचार्य का केशव के घर चैत्र सुदी ५ को जन्म हुआ । लक्ष्मण आर्य और रामानुज यह दो नाम इनका रक्खा गया । सोलहवें बरस रक्षकांवा नामक एक स्त्री के साथ इनका विवाह हुआ । विवाह के पीछे केशवजी मर गए । तब रामानुज स्वामी विद्या पढ़ने को कांचीपुर गये और वहां यादव नामक प्रसिद्ध पंडित के पास विद्या पढ़ने लगे । जिन दिनों स्वामी वहाँ विद्या पढ़ते थे उन्हीं दिनों में कांचीपुर के राजा की कन्या को ब्रह्मपिशाच की बाधा हुई । राजानुज स्वामी ने अपना पैर छुला कर उसकी पिशाचबाधा दूर कर दी । इससे प्रसन्न होकर राजा ने उनको बहुत सा द्रव्य दिया । उसी काल में स्वामी के मौसा गोविंद नामक एक बड़े पंडित यादव पंडित से शास्त्रार्य करने आये और रामानुज स्वामी का और इनका मत-विषयक एक विश्वास होने से दोनों में अत्यंत प्रीति हुई। यादव पंडित जो वास्तव में मायावादी थे गोविंद पंडित और स्वामी से बाद में बारंबार पराभूत होने से इस कुविचार में फसे कि किसी भांति स्वामी के प्राण हरण किए चाहिए । इसी वास्ते प्रगट में बहुत स्नेह दिखला कर स्वामी को साथ लेकर यात्रा के बहाने से प्रयाग की ओर चले । मार्ग में गोड़ा के जंगल में गोविंद पंडित ने स्वामी से यादव की सब कुप्रवृत्ति कह दिया । स्वामी भयभीत होकर जंगल में छिपे । वहाँ उस जंगल के देवता नारायण हस्तिगिरिनाथ ने लक्ष्मी समेत व्याधमिथुन बनकर दर्शन दिया और अपनी रक्षा में उनको कांचीपुर ले आए। इसी समय रंगपुर में यामुनायं नामक एक त्रिदंडी संन्यासी थे । उनको सर्वलक्षणसंपन्न एक शिष्य करने की इच्छा हुई । उन्होंने अपने चेलों को चारों ओर भेजा कि एक सर्वगुणसंयुक्त लड़का खोज लाओ । उन शिष्यों ने आचार्य से जाकर रामानुज स्वामी का कुल गुण विद्या आदि का वर्णन किया । गोविंद पंडित इस समय कालहस्ति नगर में आ बसे और वहाँ एक शिव स्थापन करके अध्यापन कराने लगे । यादव भी प्रयाग से कांची फिर आए और स्वामी का दैवी प्रभाव देख कर शिष्यों के द्वारा उनसे मैत्री करके रहने लगे। यामुनाचार्य रामानुज स्वामी को देखने के हेतु कांचीपुर चले और मार्ग में हस्तिगिरि नारायण के दर्शन के हेतु और अपने शिष्य कांचीपूर्ण से मिलने को हस्तिपुर में ठहरे । संयोग से रामानुज स्वामी आदि शिष्यों के साथ यादव पंडित भी हस्तिगिरि नाथ के दर्शन को आये थे । वहाँ कांचीपूर्ण ने आचार्य से स्वामी का परिचय कराया और आचार्य इनको देख कर बहुत प्रसन्न हुए और कुछ दिन के पीछे सब लोग अपने अपने नगर गए । एक दिन रामानुज स्वामी अपने गुरु यादव पंडित को तेल लगाते थे । उसी समय 'कप्यास्य' इस श्रुति का अर्थ यादव ने कुछ अशुद्ध किया. इससे स्वामी को बड़ा कष्ट हुआ और शास्त्रार्थ में स्वामी ने यादव को परास्त किया । इससे यादव ने क्रोधित होकर स्वामी को निकाल दिया । स्वामी वहाँ से हस्तिगिरि चले आए और कांचीपूर्ण के उपदेश से हस्तिगिरि वरदराज नारायण की सेवा करने लगे। यह वृत्तांत सुनकर यामुनाचार्य ने अपने शिष्य पूर्णाचार्य को अपने बनाए स्तोत्र देकर हस्तिगिरि भेजा । एक दिन वरदराज स्वामी के सामने पूर्णाचार्य वह सब स्तोत्र पढ़ रहे थे कि रामानुज स्वामी ने सुन कर और उनकी भक्तिपूर्ण रचना से प्रसन्न होकर पूर्णाचार्य से पूछा कि यह स्तोत्र किसके बनाए हैं । पूर्णाचार्य ने कहा कि यह सब स्तोत्र यामुनाचार्य के बनाए हैं और वे आप के दर्शन की बड़ी इच्छा रखते हैं । पूर्णाचार्य के उपदेश से रामानुज स्वामी यामुनाचार्य से मिलने रंगपुर चले और मार्ग में महापूर्णाचार्य से मिलाप हुआ । स्वामी का आना सुनकर यामुनाचार्य भी आगे से उन को लेने चले, किंतु कावेरी के किनारे पहुँच कर शरीर छोड़ दिया । स्वामी भी शीघ्रता से वहाँ पहुँचे, तो देखा कि आचार्य ने शरीर छोड़ दिया है, परंतु तीन अंगुली उठाये हुए हैं । स्वामी ने आचार्य का आशय समझ कर (अर्थात १ बोधायन मतानुसार ब्रह्मसूत्रादि का भाष्य बनाना, २ दिल्ली के तत्सामयिक बादशाह से श्रीराममूर्ति का उद्धार करना और ३ दिग्विजय पूर्वक विशिष्टाद्वैत मत का प्रचार) प्रतिज्ञा किया कि हम आपकी इच्छा पूर्ण करेंगे, जो सुन कर सुखपूर्वक आचार्य्य वैकुण्ड धाम गए और स्वामी भी कांची फिर आए । एक बेर कांचीपूर्ण के घर स्वामी भोजन करने गए थे, तब कांचीपूर्ण ने स्वमत विषयक उन को अनेक उपदेश किया और कहा कि आप रंगपुर जाकर पूर्णाचार्य से सब ग्रंथ पढ़िए । चरितावली ५९७