पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/६४०

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कविताओं को सुनकर राजा का मन प्रफुल्लित होता था । इस लिए ऐसे गुणी मनुष्य के बिना राजा का सब। वस्तुओं से मन उदास होने लगा । फिर राजा ने कविराज कालिदास का पता लगाने के लिये सब देशों में दूतों को भेजा । जब कहीं पता न लगा तब राजा आप ही भेष बदल कर खोजने के लिये निकले । कई देशों में घूमते फिरते जब करनाटक देश में गए उस समय उन्हें पथव्यय के लिए एक हीरा जड़ी हुई अंगूठी को छोड़ और कुछ नहीं था । उस अंगूठी को बेचने के लिये वे किसी जौहरी की दुकान पर गये । रत्नपारषी ने ऐसे दरिद्र के हाथ में ऐसी अनमोल रत्न-जड़ित-अँगूठी को देख कर मन में चोर समझा और कोतवाल के पास भेजा । कोतवाल राज-सभा में ले गया । वे चारों ओर देखते भालते जो आगे बढ़े तो कविवर कालिदास को देखा और कहा, महाराज मैंने जैसा किया वैसा ही फल पाया । कविवर कालिदास उठकर राजा को अंक में लगा कर करनाटक देशाधिपति से परिचय करा और सब व्यौरा कह कर राजा वीर विक्रमादित्य के साथ चला आया । पर इन कथाओं से भी वहीं झंझट पाई जाती है और कविवर कालिदास का समय ठीक निश्चय होना कठिन है। कोई कोई कहते हैं कि कविवर कालिदास की सहायता से एक ब्राह्मण ने राजा भोज से एक श्लोक पर अनेक रूपया इस चतुराई से लिया था । उज्जैन नगरी में राजा भोज ऐसा विद्यारसिक और गुणज्ञ और दानशील था कि विद्या की वृद्धि के प्रयोजन से उसने यह नियम प्रचलित किया था कि जो कोई नवीन आशय का श्लोक बना के लावे, तो उसको लाख रुपये देवें । इस बात को सुन के देश देशांतर के पंडित लोग नये आशय के श्लोक बना के लाते थे, परंतु उसकी सभा में चार ऐसे पंडित थे कि एक को एक बार, दूसरे को दो बार, तीसरे को तीन बार और चौथे को चार बार सुनने से नया श्लोक कंठस्थ हो जाता था । सो जब कोई परदेशी पंडित राजा की सभा में नवीन आशय का श्लोक बना के लाता तो वह राजा के सम्मुख पढ़के सुनाता था । उस समय राजा अपने पंडितों से पूछता था कि वह श्लोक नया है वा पुराना । तब वह मनुष्य जिसको कि एक बार के सुनने से कंठस्त होने का अभ्यास था कहता कि यह पुराने आशय का श्लोक है और आप भी पढ़ के सुना देता था । इसके अनन्तर वह मनुष्य जिसको दो बार सुनने से कंठ हो जाता था पढ़ के सुनाता और इसी प्रकार वह मनुष्य जिसको तीन बार और वह भी जिसको चार बार के सुनने से कंठस्थ होने का अभ्यास था, क्रम से सब राजा को कंठान सुना देते | इस कारण परदेशी विद्वान अपने प्रयोजन से रहित हो जाते थे और इस बात की चर्चा देश देशांतर में फैली । सो एक विद्वान ऐसा देश काल में चतुर और बुद्धिमान था कि उसके बनाये हुए आशय को इन चार मनुष्यों को भी अंगीकार करना पड़ा कि यह नवीन आशय है और वह श्लोक यही है। श्लोक राजन् श्रीभोजराज त्रिभुवनविजयी धार्मिकस्ते पिताs भूत । पित्रा तेन गृहीता नवनवतिमिता रत्नकोटिर्मदीया॥ तां देहि त्वदीयैस्सकल बुधवरैयते वृत्तमेत- न्लोचेज्जानंतितेवैनवकृतमथवा लक्षं ततो हे राजा भोज, तीनों लोक के जीतनेवाले, तुम्हारे पिता बड़े धर्मिष्ट हुए हैं । उन्होंने मुझसे निन्नानबे करोड़ रत्न लिया है सो मुझे आप दीजिये और इस वृत्तांत को तुम्हारे सभासद विद्वान् जानते होंगे, उनसे पूछ लीजिये । जो वह कहें कि यह आशय केवल नवीन कविता मात्र है, तो अपने प्रण के अनुसार एक लाख रुपया मुझे दीजिए । इस आशय को सुनकर चारों विद्वानों ने विचारांश किया कि जो इसको पुराना आशय ठहरावें, तो महाराज को निन्नानबे करोड़ द्रव्य देना पड़ता है और नवीन कहने में केवल एक लाख । सो उन चारों ने क्रम से यही कहा कि पृथ्वीनाथ, यह नवीन आशय का श्लोक है । इस पर राजा ने उस विद्वान को लाख रुपया दिया । ३. श्री रामानुज स्वामी का जीवनचरित्र दक्षिण में पूर्व सागर के पश्चिम तट से बारह कोस दूर तोंडीर देश में भूतपुरी नामक नगरी है । यहाँ हारीत गोत्र के केशव नामक ब्राह्मण रहते थे। यह संतान-हीन होने के कारण बहुत दुखी रहा करते थे । एक मे।॥१॥ भारतेन्दु समग्र ५९६