पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/६३

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कार्तिक-स्नान (रचनाकाल -१८७२ ई.) अथ कार्तिक-स्नान नील-हीर-दुति अति मधुर सब ब्रज-जन-चित-चोर । कृष्ण-नाम मनि-दीप जो हिय-घर मैं न प्रकाश । जय जय बिरहातप-समन राधा-नंदकिशोर ।१ दीप बहुत बारे कहा हिय-तम भयो न नाश ।१८ जुगल जलद केकी जुगल दोऊ चंद चकोर । जय जय श्रुति-पद-बंदिनी कीर्तिनंदिनी बाल । उभय रसिक रस-रास जय राधा-नंदकिशोर ।२ हरि-मन परमानंदिनी कांदिनि भव-भय-जाल ।१९ जल तरंग बुधि प्रान पुनि दीप प्रकाश समान । सोरठा जुगल अभिन्नहु दोय बपु जय राधा-भगवान ।३ नलिन-नयन अमृत-बयन बेनु-वाद्य-रत धीर । जय जय परमानंद कृपाकंद गोविंद हरि । राधा-मुख-मधु-पान-रत जय जय जय बलबीर ।४ जय जय जसुदा-नंद नंदानंदन दुद-हर ।२० बिनु हरि-पद-राधा-भजन नाहिंन और उपाय । सवैया क्यों मन तू भटकत बृथा जगत-ज फसि धाय । पूजि के कालिहि सत्रु हतौ कोऊ मथिकै बेद पुरान बहु यहै लयौ क सार । लक्ष्मी पूजि महा धन पाओ । राधा-माधव-चरन भजु तजु जप जोग हजार । सेइ सरस्वति पंडित होउ भ्रमि मत तू वेदान्त-बन बृथा अरे मन मोर ! गनेसहि पूजिकै बिघ्न नसाओ । चलु कलिंदजा-कुंज-तट लख्खु घनश्याम किशोर १७ त्यों 'हरिचंद जू' ध्याइ शिवे कोऊ शास्त्र एक गीता परम मंत्र एक हरि-नाम । चार पदारथ हाथही लाओ । कर्म एक हरि-पद-भजन देव एक घनश्याम ।८ मेरे तो राधिका-नायक ही, बिधि-निषेध जग के जिते तिनको यह सिरमौर । गति लोक दोऊ रहौ कै नसि जाओ ।१ भजनो इक नंदलाल-पद तजनो साधन और ।९ संध्या जु आपु रहौ घर नीकी नहान साधकगन सों तुम सदा छिपत फिरत ब्रजराय । तुम्हें है प्रणाम हमारी । अति अँधियारो मम हृदय तहाँ छिपत किन आय ।१० देवता पित्र छमौ मिलि मोहिं अराधना बेद कहत जग बिरचि हरि व्यापि रहत ता माहि । होइ सकै न तुम्हारी । मम हिय जग बाहर कहा जो इत ब्यापत नाहिं ।११ वेद पुरान सिधारौ तहाँ 'हरिचंद' जहाँ तुम्हरी पतियारी । तुमहिं रिझावन हित सज्यो लख चौरासी रूप । मेरे तो साधन एक ही है रीझि देहु गति खीभि कै बरजहु मोहिं ब्रज-भूप ।१२ जग नंदलला वृषभानु-दुलारी ।२ कोऊ जप संजम करौ करौ कोउ तप ध्यान । मेरे साधन एक हरि सपनेहु रुचत न आन ।१३ भजन नर्क स्वर्ग के ब्रह्म-पद के चौरासी मांहि । जय वृषभानु-नंदिनी राधा । जहाँ रहौ निज कर्म बस छुटै कृष्ण-रति नाहिं ।१४ शिव ब्रह्मादि जासु पद-पंकज हरि बस हेतु अराधा कृष्ण नाम मुख सों कटौ सुनौ कृष्ण-जस कान । करुनामयी प्रसन्न चंदमुख हंसत हरति भव-बाधा । मन में कृष्ण सदा बसौ नयन लखौं हरि ध्यान ।१५ 'हरीचंद' ते क्यौं जग जीवत जिन नहिं इनहिं अराधा ।१ चोरि चीर दधि दूध मन दुरन चहत ब्रजराय । जय जय हरि नंद-नंद पूर्ण ब्रह्म दुख-निकंद, मेरे हिय अँधियार में तौ न छिपत क्यों आय ।१६ परमानंद जगतबंद सेवक सुखदाई । सुनत दूध दधि चीर मन हरत फिरत ब्रजराय । परम जस पवित्र गाथ दीनबंधु दीनानाथ. तो अब मेरे किन हरत यह मोहिं देहु बताय ।१७ सवन दरस ध्यान सुखद गोबर्दन-राई 1 कार्तिक स्नान २३