पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/६११

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

रखकर उस के अनुशीलन में प्रवृत्त होना होता है । और अथ रस वर्णन । किसी उपकरण द्वारा नाटक लिखना भख मारना है। श्रृंगार, हास्य, करणा, रौद्र, वीर, भयानक, राजनीति, धर्मनीति, आन्वीक्षिकी, दंडनीति, अद्भुत, वीभत्स, शांत. भक्ति वा दास्य, प्रम वा सन्धि, विग्रह प्रभृति राजगुण, मन्त्रणा चातुरी, आद्य, माधुर्य, सख्य, वात्सल्य, प्रमोद वा आनन्द । करुणा प्रभृतिरस, विभाव, अनुभाव व्यभिचारी भाव, श्रृंगार, संयोग और वियोग दो प्रकार का । यथा तथा सात्विक भाव तथा व्यय, वृद्धि, स्थान प्रभृति | शाकुन्तल के पहले और दूसरे अंक में संयोग, पांचवें त्रिवर्ग की समालोचना में सभ्यक रूप समर्थ हो तब | छठे अंक में वियोग । नाटक लिखने को लेखनी धारण करें। हास्य, यथा भाण प्रहसनों में। स्वदेशीय तथा भिन्न देशीय सामाजिक रीति करुणा, यथा सत्यहरिश्चन्द्र में शैव्या के विलाप व्यावहारिक रीति पद्धति का निदान फल और परिणाम में, रौद्र, यथा धनंजय-विजय में युद्धभूमि वर्णन । इन तीनों का विशिष्ट अनुसन्धान, नाटक रचना का वीर रस ४ प्रकार । यथा दानवीर, सत्यवीर उत्कृष्ट उपाय है। युद्धवीर, और उद्योगधीर । दानवीर, यथा सत्य- वेश और वाणी दोनों ही पात्र की योग्यतानुसार होनी हरिश्चन्द्र में 'जेहि पाली इक्ष्वाकु सों' इत्यादि । चाहिये । यदि मृत्यपात्र प्रवेश करे तो जैसे बहुमूल्य सत्यवीर यथा हरिश्चन्द्र में 'बेचि देह द्वारा सुअन' परिच्छद उस के हेतु अस्वाभाविक है वैसे ही पण्डितों | इत्यादि युद्धवीर यथा नीलदेवी । उद्योगवीर (१) के संभाषण की भाँति विशेष संस्कृत गर्भित भाषा भी मुद्राराक्षस । भयानक अद्भुत और वीभत्स यथा उस के लिये अस्वाभाविकी है । महामुनि भरताचार्य सत्यहरिश्चन्द्र में स्मशानवर्णन । पात्र स्वभावानुकूल भाषण रखने का वर्णन अत्यन्त शांत यथा प्रबोध चन्द्रोदय में भक्ति यथा संस्कृत सविस्तार कर गये हैं, यद्यपि उनके नांदी रचनादि चैतन्यचन्द्रोदय में, प्रम यथा चन्द्रावली में, वात्सल्य विषय के नियम हिंदी में प्रयोजनीय नहीं किन्तु पात्र | और प्रमोद के उदाहरण नहीं हैं। स्वभाव विषयक नियम तो सर्वथा शिरोधार्य हैं। अथ रसविरोध । नाटक पठन वा दर्शन में स्वभावरक्षा मात्र एक नाटकरचना में विरोधी रसों को बहुत बचाना उपाय है जो पाठक और दर्शकों के मन :समुद्र को भाव | चाहिए । जैसे श्रृंगार के हास्यवीर विरोधी नहीं किन्तु तरंगों से आस्फलित कर देता है। अति करुणा वीभत्स रौद्र भयानक और शान्त विरोधी हैं नाटकदर्शकगण विदूषक के नाम से अपरिचित नहीं | तो जिस नाटक में श्रृंगाररस प्रधान अंगी भाव से हो है किन्तु विदूषक का प्रवेश किस स्थान में योग्य है इस उसमें ये न आने चाहिए । अति करुणा लिखने का का विचार लोग नहीं करते । बहुत से नाटकलेखकों का तात्पर्य यह कि सामान्य करुणा तो वियोग में भी वर्णित सिद्धांत है कि अथ इति की भांति विदूषक की नाटक में होगी किन्तु पुत्रशोकादिवत अति कृरुणा का वर्णन सहज आवश्यकता है । किन्तु यह एक भ्रम मात्र है। श्रृंगार का विरोधी है । हाँ नवीन (ट्रैजेडी) वियोगान्त वीर वा करुणरस प्रधान नाटक में विदूषक का प्रयोजन | नाटक लेखक तो इस रस विरोध करने को बाधित हैं 1 नहीं रहता । श्रृंगार की पुष्टि के हेतु विदूधक का | नाटकों की सौन्दर्य्यरक्षा के हेतु विरोधी रसों को बचाना प्रयोजन होता है, सो भी अब स्थल में नहीं, क्योंकि | भी बहुत आवश्यक कार्य है अन्यथा होने से कवि का किसी किसी अवसर पर विदूषक के बदले विट, चेट, मुख्य उद्देश्य नाश हो जाता है। पीठमर्द, नर्मसखा प्रभृित का प्रवेश विशेष स्वाभाविक अथ अन्य स्फुट विषय । होता है । प्राचीन शास्त्रों के अनुसार कुसुमबसंतादिक नाटक रचना के हेतु पूर्वोक्त कधित विषयों के नामधारी, नाटा, मोटा, वामन, कुबड़, टेढ़े अंग का वा | अतिरिक्त कुछ नायिकाभेद और कुछ अलंकारशास्त्र और किसी विचित्र आकृति का, किम्बा हकला तोतला | जानने की भी आवश्यकता होती है। ये विषय भोजनप्रिय, मूर्ख, असंगत, किंतु हास्य रस के अविरुद्ध रसरत्नाकर भारतीभूषण लालित्यलता आदि ग्रन्थों में बात कहने वाला विदूषक होना चाहिए और उसका विस्तार रूप से वर्णित हैं। परिच्छद भी ऐसा हो जो हास्य का उद्दीपक हो । आज कल की सभ्यता के अनुसार नाटकरचना में संयोग श्रृंगार वर्णन में इस की स्थिति विशेष | उद्देश्यफल उत्तम निकलना बहुत आवश्यक है । यह न स्वाभाविक होती है। होने से सभ्यशिष्टगण ग्रन्थ का तादृश आदर नहीं (१) मुद्राराक्षस में मुख्य अंगीभाव से कोई रस न पाकर मुझ को उद्योगवीर की कल्पना करनी पड़ी नाटक ५६७