पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/५९६

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'श्री मन्महाराज की उक्ति । दिवानी सी सकानी सी बिकानी सी ।।१३ ।। दोहे- यह सुनकर वह सखी उत्तर देती है। हम जानी तुम देर जो, लावत तारन माहि । सवैया जाहु न जाहु न कुञ्जन में उत नाहि पाहन ह तें कठिन गुनि, मो हिय आवत नाहिं ।३ तौ नाहकर लाहि खोलि हौ । देखि जी लैहो कुमारन तारन मैं मो दीन के, लावत प्रभुत कित बार । को अबहीं झट लोक की लीकहि छोलि हो ।। भूलि है कुलिस रेख तुव चरन है, जो मम पाप पहार ।३ देह दसा सगरी हरिचन्द कछू को कट मुख बोलि हो । कवि की उक्ति। लागि हैं लोग तमासे हहा बलि बावरी सी हवै बजारन मो ऐसो को तारिबो, सहज न दीनदयाल । डोलि हो ।।१४ ।। आहन पाहन बहू, सो हम कठिन कृपाल ।५ कवित्त-जाहु न सयानी उत बिरछन माहि परम मुक्तिहू सों फलद, तुअ पद पदुम मुरारि । कोऊ कहा जाने कहा दोय झलक अमन्द है। देखत ही यहै जतावन हेत तुम, तारी गौतम नारि । मोहि मन जात नसै सुधि बुधि रोम रोम छकै ऐसो रूप एहो दीनदयाल यह, अति अचरज की बात । सुख कन्द है ।। हरीचन्द देवता है सिद्ध है छत्लावाहै तो पद सरस समुद्र लहि पाहन हूं तरि जात ।७ सहावा है कि रत्न है कि कीनो दृष्टि बन्द है । जादू है कहा पखानहुं ते कठिन, मो हियरो रघुबीर । कि जन्त्र है कि मन्त्र है कि तन्त्र है कि तेज है कि तारा जो मम तारन मैं परी, प्रभु पर इतनी भीर ।८ है कि रवि है कि चन्द है ।।१५ ।। प्रभु उदार पद परसि जड़, पाहन हूं तरि जाय । वहां से दूसरे दिन श्री रामचन्द्र धनुषयज्ञ में आते हैं हम चैतन्य कहाइ क्यौं तरत न परत लखाय ।९ और उनका सुन्दर रूप देखकर नर नारी सब यही अति कठोर निज हिय कियो, पाहन सों हम हाल । मनाते हैं। जामैं कबहू मम सिरहू, पद रज देहि दयाल ।१० कवित्त- आए हैं सबन मन भाए रघुराज दोङा हमहूं कछु लघु सिल न जो, सहजहिं दीनी तार । जिन्हें देख धीर नाहि हिअ मांहि धरि जाय । जनक लगि है इत कछु बार प्रभु, हम तौ पाप पहारा ।११ | दुलारी जोग दूलह सखी हैं एई ईस करै राउ आज प्रनहिं फिर श्री रामचन्द्रजी सानुज जनकनगर देखने जाते बिसरि जाय ।। हरीचन्द चाहै जौन होइ एई सिअ बरें है । पुरनारियों के मन नैन देखते ही लुभाते हैं। जो जो होई बाधक विधाता करै मरि जाय । चाटि जाहिं कवित्त- कोऊ कहै यहै रघुराज के कुंआर | चुन याहि अबहीं निगोरो बटपारो दई मारो धनु आग दोऊ कोऊ ठाढ़ी एक टक देखें रूप घर मैं । कोऊ लगै जरि जाय ।।१६।। खिरकीनी कोऊ हाट बाट धाई फिरै बावरी हवे पूछे गए जब धनुष के पास श्रीरामजी जाते हैं तब जानकी जी अपने चित्त में कहती हैं। कौनसी डगर मैं ।। हरीचन्द भूमै मतवारी दृग मारी सवैया-मो मन मैं निहचे सजनी यह तातहु ते कोऊ जकी सी ठगी सी थकी सी कोऊ खरी एकै थर प्रन मेरो महा है । सुन्दर स्याम सुजान सिरोमनि मो मैं । लहर चढ़ी सी कोऊ जहर मढी सी भई कहर पड़ी है आजु जनक सहर मैं ।।१२।। हिअ मैं रमि राम रहा है ।। रीत पतिब्रत राखि चुकी मुख भाखि चुकी अपुनो दुलहा है । चाप निगोड़ो अबै फिर श्री राम जी फुलवारी में फूल लेने जाते है । उस समय फुलवारी की रचना. कुंजों की के भौंरों का नाचना, और चिड़ियों का चहकना यह सब देखने ही के योग्य है। जाते हैं और उठाकर दो टुकड़े करके पृथ्वी पर डाल देते इतने में एक सखी जो कुंजों में गई तो वहां रामरूप हैं। बाजे और गीत के साथ जय जय की धुन आकाश देखकर बावली हो गई । जब वहां से लौटकर आई तो तक छा जाती है। और सखियां पूछने लगीं। कवित्त--जनक निरासा दुष्ट नृपन की आसा कवित्त-कहा भयो कैसी है बतावै किन देह पुरजन की उदासी सोक रनिवास मनु के । बीरन के दसा छन ही में काहे बुधि सबही नसानी सी । अबहीं गरब गरूर भरपूर सब भ्रम आदि मुनि कौसिक के तनु तो हंसति हंसति गई कुञ्जन मैं कहा तित देख्यौ जासों के ।। हरीचन्द भय देव मन के पुहुमि भार बिकल' (बै रही हिरानी सी ।। हरीचन्द काहू कछु पढ़ि कियो | विचार सबै पुरनारी जनु के । संका मिथिलेस की सिया टोना लागी ऊपरी बलाय कै रही है बिख सानी सी । के उर सूल सबै तोरि डारे रामचन्द्र साथै हर धनु आनन्द समानी सी जगत सों भुलानी सी लुभानी सी | के ।।१८।। ROM

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भारतेन्दु समग्न ५५२ कल जरि आहु चो तो कहा न चढ़ी तो कहा है ।।१७।। लोगों को चिन्तित देख श्री रामचन्द्र जी धनुष के पास