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आप तो सिद्ध हो, आपको गति अगति से क्या? मैं फांसी चढ़ूंगा।
(इसी प्रकार दोनों हुज्जत करते हैं––सिपाही लोग परस्पर चकित होते हैं)

१ सिपाही–– भाई! यह क्या माजरा है, कुछ समझ नहीं पड़ता।

२ सिपाही–– हम भी नहीं समझ सकते कि यह कैसा गबड़ा है।

(राजा, मंत्री कोतवाल आते हैं)

राजा–– यह क्या गोलमाल है?

१ सिपाही–– महाराज! चेला कहता है मैं फांसी पड़ूंगा, गुरु कहता है मैं पड़ूंगा; कुछ मालूम नहीं पड़ता कि क्या बात है?

राजा–– (गुरु से) बाबा जी! बोलो। काहे को आप फांसी चढ़ते हैं?

महन्त–– राजा! इस समय ऐसा साइत है कि जो मरेगा सीधा बैकुंठ जायगा।

मंत्री–– तब तो हमी फांसी चढ़ेंगे।

गो.दा.–– हम हम। हम को तो हुकुम है।

कोतवाल–– हम लटकैंगे। हमारे सबब तो दीवार गिरी।

राजा–– चुप रहो, सब लोग, राजा के आछत और कौन बैकुण्ठ जा सकता है। हमको फांसी चढ़ाओ, जल्दी, जल्दी।

महन्त––

जहाँ न धर्म्म न बुद्धि नहिं, नीति न सुजान समाज।
ते ऐसहिं आपुहि नसे, जैसे चौपटराज॥

(राजा को लोग टिकठी पर खड़ा करते हैं)
(पटाक्षेप)
इति

 
 


सतीप्रताप

गीतिरूपक, जिसे भारतेन्दु ने सम्वत् १९४१ में लिखना शुरू किया था। इसके कुछ दृश्य सन् १८८४ में "हरिश्चंद्र चंद्रिका" के अंको में प्रकाशित हुए। भारतेन्दु जी के निधन के कारण यह पूरा नहीं हो पाया। बाद में बाबू राधाकृष्ण दास ने अंतिम तीन दृश्य लिखकर इसे पूरा किया।
कहा जाता है कि लाला श्री निवासदास "तप्तासंवरण" नाटक इसी पति महात्म्य पर लिख चुके थे। वह "हरिश्चंद्र मेगजीन" में छपा भी था। शायद वह भारतेन्दु को पसंद नहीं आया तभी उन्होंने इस गीत रूपक को लिखा।–– सं.

सती प्रताप
(एक गीतिरूपक)

 

पहला दृश्य
हिमालय का अधोभाग।

तृण लता वेष्ठित एक टीले पर बैठी हुई तीन अप्सरा गाती हैं॥

(राग झिझौटी)

१ अप्सरा––
१. जय जय श्री रुकमिन महरानी।
२. निज पति त्रिभुअन पति हरि पद में छाया सी

भारतेन्दु समग्र ५३६