संदेह हो उनके विषय मुझसे प्रश्न कीजिए और ब्योरेवार वृतांत सुनिए। गिरीश––बहुत ठीक–– |
है जब तक मेरे दम में दम डरूँगा हर घड़ी हर दम। रहेगा रात दिन खटका नरश्री की अँगूठी का। (सब जाते हैं)
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इति
अंधेर नगरी
चौपट्ट राजा
यह प्रहसन भारतेन्दु ने बनारस में हिन्दी भाषी और कुछ बंगालियों की संस्था नेशनल थियेटर के लिए एक दिन में सन् १८८१ में लिखा था और काशी के दशाश्वमेध घाट पर ही उसी दिन अभिनीत भी हुआ। भारतेन्दु जी इस संस्था के संरक्षक थे।
–– सं.
अंधेर नगरी चौपट राजा
टके सेर भाजी टके सेर खाजा
समर्पण
मान्य योग्य नहि होत कोऊ कोरो पद पाए।
मान्य योग्य नर ते, जे केवल परहित जाए॥
जे स्वारथ रत धूर्त हंस से काक-चरित-रत।
ते औरन हति बचि प्रभुहि नित होहि समुन्नत॥
जदपि लोक की रीति यही पै अन्त धर्म्म जय।
जौ नाही यह लोक तदपि छलियन अति जम भय॥
नरसरीर मे रत्न वही जो परदुख साथी।
खात पियत अरु स्वसत स्वान मुड़ुक अरु माथी॥
तासो अब लौ करो, करो सो, पै अब जागिय।
गो श्रुति भारत देस समुन्नति मै नित लागिय॥
साँच नाम निज करिय कपट तजि अन्त बनाइय।
नृप तारक हरि पद भजि साँच बढ़ाई पाइय॥
ग्रंथकार।
दुर्लभ बन्धु ५२९