पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/५६५

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'तुम्हारे कारण आई क्योंकि इस समय पर भाग्य अपने राजसभा देती है। नियम के विरुद्ध बहुत कृपालु जान पड़ती है । उसका शैलाक्ष- वाह रे न्यायी ! सदा यह नियम देखने में आया है कि वह भाग्यहीन पुरस्त्री- और यह मांस तुमको उसकी छाती से मनुष्य को उनकी लक्ष्मी चले जाने के उपरांत ठोकर काटना चाहिए, कानून इसको उचित समझता है और खाने और दुरवस्था से दारिद्रया का दु:ख उठाने के लिए | न्यायसभा आज्ञा देती है। छोड़ देती है किंतु मुझे वह एक साथ इस जन्म भर के शैलाक्ष- ऐ मेरे सुयोग्य न्यायकर्ता ! इसका क्लेश से छुटकारा दिए देती है । अपनी सुशील स्त्री से नाम विचार है । आओ, प्रस्तुत हो । मेरा सलाम कहना और उनसे मेरे मरने का हाल कह पुरश्री-थोड़ा ठहर जा, एक बात और शेष देना । जो स्नेह मुझे तुम्हारे साथ था उसका भी वर्णन | है। यह तमस्सुक तुझे रुधिर एक बूंद भी नहीं करना, मेरे प्राण देने के ढंग को सराहना और जिस | दिलाता, "आध सेर मांस" यही शब्द स्पष्ट लिखे समय मेरी कहानी कह चुको तो उनसे न्यायदृष्टि से हैं । इसलिये अपनी प्रण प्राप्ति कर ले अर्थात आध सेर पूछना कि किसी समय में बसंत का भी कोई चाहने मांस ले ले परंतु यदि काटने के समय इस आर्य का एक वाला था या नहीं । मेरे प्यारे तुम इस बात का खेद न | बूंद रक्त भी गिराया तो वंशनगर के कानून के अनुसार करो कि तुम्हारा मित्र संसार से उठा जाता है क्योंकि तेरी सब संपत्ति और लक्ष्मी व सामनी राज्य में लगा निश्चय मानो कि उसे इस बात का नेक भी शोच नहीं ली जायगी । कि वह तुम्हारे मृण को अपने प्राण देकर चुकाता है गिरीश-- वाह रे विवेकी ! सुन जैन ऐ मेरे क्योंकि यदि जैन ने गहरा घाव लगाने में कमी न को तो | सुयोग्य न्यायी ! मैं तुरंत उससे उऋण हो जाऊँगा । शैलाक्ष- क्या यह कानून में लिखा है ? बसंत-अनंत मेरा व्याह एक स्त्री के साथ हुआ पुरश्री-- तुझे आप कानून दिखला दिया जायग है जिसे मैं अपने प्राण से अधिक प्रिय समझता हूँ, परंतु | क्योंकि जितना तू न्याय न्याय पुकारता है उससे मेरा प्राण, मेरी स्त्री और सारा संसार तुम्हारे जीवन के | अधिक न्याय तेरे साथ बरता जायगा । सामने तुच्छ है, और तुमको इस दुष्ट राक्षस के पंजे से गिरीश-आहा! वाह रे न्याय ! देख जैनी छुड़ाने के लिये मैं इन सब को खोने वरंच तुम पर से कैसे विवेकी न्यायकर्ता है न्यौछावर करने को प्रस्तुत हूँ। शैलाक्ष-अच्छा मैं उसकी प्रार्थना स्वीकार पुरश्री- यदि तुम्हारी स्त्री इस स्थान पर करता हूँ -तमस्सुक का तिगुना देकर वह अपनी उपस्थित होती तो तुम्हारे मुंह से अपने विषय में ऐसे | राह ले । शब्द सुन कर अवश्य अप्रसन्न होती। बसंत-ले यह रुपये हैं। गिरीश- मेरी एक स्त्री है, जिसे मैं धर्म से पुरश्री -ठहरो, इस जैनी के साथ पूरा न्याय कहता हूँ कि मैं प्यार करता है परंतु यदि उसके स्वर्ग किया जायगा, थोड़ा धीरज धरो, शीघ्रता नहीं है, उसे जाने से किसी देवता की सहायता मिल सकती, जो इस दंड के अतिरिक्त और कुछ न दिया जायगा । पापी जैन के चित्त को फेर देता है तो मुझे उससे हाथ गिरीश-ओ जैनी देख तो कैसे धार्मिक और धोने में कुछ शोच न होता । योग्य न्यायी हैं । वाह वाह ! नरश्री- यही कुशल है कि तुम उसकी पीठ पुरधी 'अब तू मास काटने की प्रस्तुतियाँ पीछे ऐसा कहते हो, नहीं तो न जाने आज कैसी आपत्ति | कर, परंतु सावधान, स्मरण रखना कि रक्त नाम को भी न निकलने पावे और न आध सेर मांस से न्यून वा शैलाक्ष-(आप ही आप) इन आर्यपतियों को | अधिक कटे । यदि तूने ठीक आध सेर से थोड़ा सा भी बातें सुनो ! मेरी बेटी का व्याह तो यदि बरवंड के न्यूनाधिक काटा यहाँ तक कि यदि उसमें एक रत्ती सदृश्य किसी व्यक्त्ति से होता तो मैं अधिक पसन्द बीसवें भाग का भी अंतर पड़ा, वरंच यदि तराजू की करता, इसकी अपेक्षा कि वह एक आर्य की स्त्री बने । डाँडी बीच से बाल बराबर भी इधर या उधर हटी तो तू (चिल्ला कर) समय व्यर्थ जाता है । मैं प्रार्थना करता हूँ | जी से मारा जायगा और तेरा सब धन और धान्य छीन (कि आप विचार सुना दें लिया जायगा । पुरश्री- इस सौदागर के शरीर का आधा सेर गिरीश- वाह वाह ! मानो महाराज विक्रम मांस तुम्हारा ही है, जिसे कि कानून दिलाता है और । आप टी न्याय के लिए उतर आए हैं ! अरे जैनी देख WO*** दुर्लभ बन्धु५२१ 1 मचती । 1