पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/५५६

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-और ज्योंही आप की प्रेम दृष्टि राजकुमारी पर पड़ी, मेरे नेत्रों | सुहृन्मित्र प्रसन्न तो हैं । में भी उनकी सहेली बस गई। उधर आप अनुरक्त हुए सलोने- देखने में तो वह पीड़ित नहीं है परंतु इधर मैं प्रेम के फंदे में फंसा । इस में न आप को आंतरिक हो तो हो और न अच्छे ही दृष्टि आते हैं किंतु विलंब लगा न मुझे । आप के प्रारम्भ की परीक्षा चित्त का हाल में नहीं कह सकता । अच्छा उस पत्र से संदूकों के चुनने पर थी वैसे ही मेरा भाग्य भी उन्हीं के उनका वृत्तांत आपको भली भाँति सूचित हो जायगा । साथ अटका हुआ था । तात्पर्य यह है कि मुझे इस गिरीश- नरश्री अपने पाहुनों का सत्कार करो सुंदरी की इतनी सुनषा करनी पड़ी कि शरीर से स्वेद और उनका मन बहलाओ । सलोने नेक इधर ध्यान निकल आया और अपनी प्रीति का निश्चय दिलाने के | दीजिए, कहो तो वंशनगर का क्या समाचार है, सब लिये इतनी सौगर्दै खानी पड़ी कि तालू चटक गया तब सौदागरों के सिरताज हमारे सुहृद् अनंत किस भांति कहीं, यदि वाकदान कोई वस्तु है तो इनके मुख से यह है ? हमारे पूर्ण मनोरथ होने का समाचार सुनकर तो वाक्य निकला कि जो तुम्हारे स्वामी का विवाह मेरी वह फूले न समायेंगे, हम लोग अपने समय के महावीर स्वामिनी से हो जायगा तो मैं भी तुम्हें ग्रहण करूँगी। हैं क्योंकि सोने की खाल हमने ही जीती है। पुरश्री -नरी क्या यह बात सच है ? सलोने- मेरी जान तो यदि तुम उस खाल को नरश्री-हाँ सखी यदि आप की इच्छा के जीतते जिसे बसंत हारे हैं तो अच्छा होता । विरुद्ध न हो तो सच ही समझी जायगी । पुरश्री-कदाचित् पत्र में कोई बुरा समाचार है बसंत तुम । गिरीश धर्मपूर्वक यह विचार कि जिससे बसंत के मुख की कांति बढ़ी जाती है। कोई करते हो न? प्रिय मित्र मर गया हो, नहीं तो कौन ऐसी बात है कि गिरीश-धर्मावतार सब सच्चे जी से । जिससे ऐसे धीर मनुष्य की अवस्था हीन हो जाय । ऐ ! बसंत-तुम्हारे व्याह से हमारे समाज का यह तो क्षण प्रति क्षण मुख की पांडुता बढ़ती जाती है। आनंद दूना हो उठेगा। बसंत मुझे क्षमा कीजिएगा, मैं आपके शरीर का अनांग गिरीश-ये यह कौन आता है। अहा लवंग हूँ, और इसलिए जो कुछ कि उस पत्र में लिखा है उस और उनकी प्राणप्यारी ! और हमारे पुराने वंशनगर के में से आधा हाल सुनने की मैं भी अधिकारी हूँ। मित्र सलोने भी साथ हैं । ऐ मेरी प्यारी पुरश्री इस पत्र में कई (लवंग, जसोदा और सलोने आते हैं) एक ऐसे दुखदाई शब्द हैं कि जिनका वर्णन नहीं हो बसंत - अहा लवंग और सलोने आए परंतु मैं सकता । मेरी सुजान प्यारी तुम भली भांति जानती हो अपनी अवस्था में बिना अपनी प्यारी की आज्ञा के कि जब मैंने तुम्हे अपना मन दिया था तो यह पहले ही प्रसन्नता प्रकट करने का कब अधिकार रखता हूँ। कह दिया था कि जो. कुछ कि मेरी पूँजी है वह मेरा प्यारी पुरश्री यदि तुम्हारी आज्ञा हो तो मैं अपने सच्चे शरीर है अर्थात मैं अपने कुल का कुलीन हूँ । और इस मित्रों और स्वदेशियों के आने पर प्रसन्नता प्रकट में कोई बात मिथ्या न थी, परन्तु प्यारी यद्यपि मैंने करूं। अपनी क्षमता तुम पर स्पष्ट प्रकट कर दी तो भी यदि पुरश्री- मेरे स्वामी इस में मेरी परम प्रसन्नता सच पूछो तो मैंने अभिमान किया क्योंकि जिस समय है, ऐसे लोगों का भाग्य से आना होता है। मैंने तुमसे यह कहा कि मेरे पास कुछ नहीं है मुझे यो लवग-मैं आपको धन्यवाद देता हूँ. किंतु सच कहना चाहिये था कि मेरी अवस्था उससे भी गई बीती पूछिए तो मेरी इच्छा आप से यहाँ भेंट करने की न थी | है । खेद है कि मैंने केवल अपना मनोरथ पूरा करने के परंतु मार्ग में सलोने मित्र मिल गए और मुझे यहाँ लाने लिये अपने प्यारे मित्र को उसके परम शत्रु के पंजे में के विषय में इतना हठ किया कि मैं नहीं न कर सका फंसा दिया । देखो यह पत्र वर्तमान है जिसे मेरे मित्र का और साथ आना ही पड़ा । शरीर समझना चाहिए और प्रति शब्द उसका नया घाव सलोने - जी हाँ मैं इनको वस्तुत : खींच लाया जिससे रक्त टपक रहा है । पर क्यों सलोने क्या यह पर इसका एक मुख्य कारण है अनंत महाशय ने सत्य है कि उनका सारा काम बिगड़ गया ? क्या एक आपको सलाम कहा है। भी ठीक न उतरा ? ऐ त्रिपुल, मौक्षिक, अंगदेश. नंदन (बसंत के हाथ में एक पत्र देता है) बरबर और हिंदुस्तान सब देशों के जहाजों में से एक बसंत- इससे पहिले कि मैं उनके पत्र को | को भी व्यापारियों को निराश करने वाली चट्टानो ने खोलूँ मुझे भगवान के लिये इतना बता दो कि मेरे | अखंड न छोड़ा । भारतेन्दु समग्र ५१२ बसत. O *** Sy is