पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/५०४

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

'जुगुल रूप छवि अमित माधुरी रूप-सुधा-रस-सिंधु बही री । इनही सौं अभिलाख लाख करि इक इनहीं को नितहि चहौ री । जो नर तनहि सफल करि चाही इनहीं के पद कंज गहीरी। करम-ज्ञान-संसार-जाल तजि बरु बदनामी कोठि सही री। इनहीं के रस मत मगन नित इनहीं के हवै जगत रहो री ।। इनके बल जग-जाल कोटि अब तृन सम प्रम प्रभाव दही री ।। इनहीं को सरबस करि जानी यह मनोरथ जिय उमहौरी ।। राधा चंद्रावली-कृष्ण-ब्रज-जमुना- गिरिवर सुखहिं कहीं री। जनम जनम यह कठिन प्रमव्रत 'हरीचंद' इकरस निबही री ।। भ.- प्यारी! और जो इच्छा होय सो कही । काहे सो के जो तुम्हें प्यारो है सोई हमैं हूं प्यारो है। चं.- नाथ ! और कोई इच्छा नहीं, हमारी तो सब इच्छा की अवधि आपके दर्शन ही ताई है तथापि भरत को यह वाक्य सफल होय परमारथ स्वारथ दोउ कह सँग मेलि न सानैं । जे आचारज होई धरम निज तेइ पहिचानें ।। बृदाबिपिन बिहार सदा सुख सों थिर होई । जन बल्लभी कहाइ भक्ति बिनु होइ न कोई ।। जगजाल छोहि अधिकार लहि कृष्णचरित सबही कहै। यह रतनदीप हरिप्रेम को सदा प्रकाशित जग रहै ।। (फूल की वृष्टि होती है. बाजे बजते हैं और जवनिका गिरती है) इति परमफल चतुर्थ अंक el CITESTI भारत दुर्दशा सन् १८७५ में छपा दुखान्त रूपक है, जिसे भारतेन्दु नाट्य रासक या लास्य रूपक कहते हैं। - सं. भारतदुर्दशा (मंगलाचरण) जय सतजुग-थापन-करन, नासन म्लेच्छ-आचार । कठिन धार तरवार कर, कृष्ण कल्कि अवतार ।। पहिला अंक सबके पहिले जेहि ईश्वर धन बल दीनों। स्थान - बीथी सबके पहिले जेहि सभ्य विधाता कीनो ।। (एक योगी गाता है) सबके पहिले जो रंग रस भीनो। (लावनी) सबके पहिले विद्याफल जिन गहि लीनों ।। रोवहु सब मिलिके आवहु मारत भाई । अब सबके पीछे सोई परत हा हा! भारतदुर्दशा न देखी जाई ।।ध्रुव ।। | हा हा! भारतदुर्दशा न देखी लखाई। जाई ।। Attaka भारतेन्दु समग्र ४६०