पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/५०१

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सुहाग । आप खिंचा जाता है 1 ल.-साधन कौन । का जीपर एक ऐसा विचित्र अधिकार होता है। जो. पिया मिलन । कि वर्णन के बाहर हैं। या मेरा जी ही चोटल ल.- गादी कौन । हो रहा है । हाय हाय ! ठीक प्रान प्यारे की सी जो. इसकी आवाज है। (बल पूर्वक आंसूओं को नैन कहें गुरु मन दियो, बिरह सिद्धि उपदेस । रोक कर और जी बहला कर) कुछ इस से और तब सों सब कुछ छोड़ि हम, फिरत देस परदेस ।। गावाऊं । (प्रकट) योगिन जी कष्ट न हो तो कुछ और चं.-(आप ही आप) हाय ! यह भी कोई बड़ी | गाओ । (कह कर कभी चाव से उसकी ओर देखती है भारी बियोगिनि है तभी इसकी ओर मेरा मन आपसे और कभी नीचा सिर करके कुछ सोचने लगती है ।) जो. (मुसका कर) अच्छा प्यारी ! सुनो (गाती ल..-तौ संसार को जोग औरही रकम को है | है) और आप को तो पन्य ही दूसरी । है । तो भला हम जोगिन रूप सुधा की प्यासी । यह पूछे कि का संसार के ओर जोगी लोग वृथा जोग | बिनु पिय मिलें फिरत साधैं हैं। बन ही बन छाई मुखहि उदासी । जो. यमैं का सन्देह है सुनो (सारंगी छेड़ कर भोग छोडि धन धाम काम तजि भई प्रेम बनबासी । गाती है) पिय हित अलख अलख रट पचि मरत वृथा सब लोग जोग सिरधारी । सांची जोगिन पिय बिना बियोगिन नारी ।। लागी पीतम रूप उपासी । बिरहागिन धूनी चारों ओर लगाई। मन मोहन प्यारे तेरे लिए जोगिन बन बन बन छान फिरी ।। बसी धुनि की मुद्रा कानो पहिराई ।। कोमल से तन पर खाक मली असुअन की सेली गल में लगत सुहाई । घर धूर जमी सोई अंग भभूत रमाई । ले जोग स्वांग सामान फिरी ।। तेरे दरसन कारन डगर डगर लट उरझि रहीं सोइ लटकाई लटकारी । सांची जोगिन पिय बिना बियोगिन नारी । करती तेरा गुन गान फिरी । गुरु बिरह दियो उपदेस सुनो ब्रजबाला । अब तो सूरत दिखला प्यारे पिय बिछुरन दुख का (ज ?) बिछाओ तुम मृगछाला।। हरिचन्द बहुत हैरान फिरी । मन के मन के की जपो पिया की माला । चं.-आप ही आप) हाय यह तो सभी बातें पते बिरहिन की तो हैं सभी निराली चाला ।। की कहती है। मेरा कलेजा तो एक साथ ऊपर को पीतम से लगि लौ अचल समाधि न टारी । खिंचा आता है। हाय ! 'अब तो सूरत दिखला सांची जोगिन पिय बिना बियोगिन नारी ।। यह है सुहाग का अचल हमारे बाना । जो.- तो अब तुम को भी गाना होगा। यहां तो असगुन की मूरति खाक न कभी चढ़ाना । फकीर हैं । हम तुम्हारे सामने गावें तुम हमारे सामने न सि सेंदुर देकर चोटी गूथ बनाना । गाओगी । (आप ही आप) भला इसी बहाने प्यारी की कर चूरी मुख में रंग तमोल जमाना ।। अमृत बानी तो सुनेंगे । (प्रकट) हां ! देखो हमारी यह पहिली भिक्षा खाली न जाय हम तो फकीर हैं हमसे पीना प्याला भर रखना वही खुमारी । कौन लाज है। सांची जोगिन पिय बिना बियोगिन नारी ।। है पन्ध हमारा नैनों के मत जाना । चं.-भला मैं गाना क्या जानू । और फिर मेरा जी भी आज अच्छा नहीं है गला बैठा कुल लोक वेद सब औ परलोक मिटाना ।। शिवजी से जोगी को भी जोग सिखाना ।। ठहर कर नीची आंख कर के) और फिर मुझे संकोच हरिचन्द एक प्यारे से नेह बढ़ाना ।। लगता है। ऐसे बियोग पर लाख जोग बलिहारी । जो.- (मुसक्या कर) वाह रे संकोच वाली । सांची जोगिन पिय बिना बियोगिन नारी ।। भला मुझ से कौन संकोच है ? मैं फिर रूठ जाऊंगी जो, चं.-(आप ही आप) हाय हाय इसका मेरा कहना न करेगी। गाना कैसा जी को बंधे डालता है । इसके शब्द (आप ही आप) हाय हाय ! इसकी कैसी प्यारे'। । (कुछ चं.- श्री चन्द्रावली ४५७