पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/४९०

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

है)। देख्यौ एक बारह न नैन भरि तोहि यातें देश में ठीक नियम पर चलने वाला कोई आर्य जौन जौन लोक जैहें तहीं पछितायंगी । ब. दे. सो कहां सो भाग जायगो? बिना प्रान प्यारे भये दरस तुम्हारे हाय च.-फेर बके जाय है अरी मैंने अपनी आखिन देखि लीजौ आखें ये खुली ही रहि जायंगी ।। में मूदि राख्यौ है सौ तू चिल्लायगी तौ निकसि परन्तु प्यारे अब इनको इसरा कौन अच्छा लगेगा | भागैगो । जिसे देख कर यह धीरज धरैगी, क्योंकि अमृत पीकर ब. दे.- (चन्द्रवली की पीठ पर हाथ फेरती फिर छाछ कैसे पीयेंगी । बिछुरे पिय के जग सूनो भयो च.- (जल्दी से उठ, बन देवी का हाथ अब का करिए कहि पेखि का । पकड़कर) कहो ! प्राणनाथ अब कहां भागोगे । सुख छाड़ि के संगम को तुम्हरे (बनदेवी का हाथ छुड़ा कर एक ओर वर्षा सन्ध्या दूसरी इन तुच्छन को अब लेखिए का ।। ओर वृक्षों के पास हट जाती है) हरिचन्द जू हीरन को वेवहारन के च.- अच्छा क्या हुआ यों ही हृदय से भी कांचन को लै परेखिए का । निकल जाओ तो जानूं तुमने हाथ छुड़ा लिया तो क्या जिन आंखिन मैं तुव रूप बस्यो हुआ मैं तो हाथ नहीं छोड़ने की, हा ! अच्छी प्रीति उन आखिन सों अब देखिए का ।। निबाही! इससे नेत्र तुम तो अब ही रहो (आंचल से नेत्र (बनदेवी सीटी बजाती है) छिपाती है। च.- देखो दुष्ट का, मेरा तो हाथ छुड़ा कर भाग (बनदेवी सन्ध्या २' और वर्षा ३. आती हैं) गया अब न जाने कहां खड़ा बंशी बजा रहा है। अरे स.- अरी बन देवी । यह कौन आंखिनै मूदि कै छलिया कहां छिपा है ? बोल बोल कि जीते जी न अकेली या निरजन बन मैं बैठि रही है। बौलैगा (कुछ ठहर कर) मन बोल मैं आप पता लगा ब.दे.- अरी का तू याही नायं जाने ? यह राजा लूंगी । (बन के वृक्षों से पूछती है) अरे वृक्षो बताओ तो चन्द्रभानु की बेटी चन्द्रावली है। मेरा लुटेरा कहां छिपा है ? क्यों रे मोरो इस समय नहीं वर्षा.- तो यहां क्यों बैठी है। बोलते नहीं तो रात को बोल के प्राण खाये जाते थे कहो ब.दे. -राम जाने (कुछ सोचकर) अहा जानी ! न वह कहां छिपा है (गाती है) अरी, यह तो सदा यांई बैठी बक्यौ करै है और यह अहो अहो बन के रूख कई देख्यौ पिय प्यारो । तो या बन के स्वामी के पीछे बावरी होय गई है। मेरो हाथ छुड़ाइ कही वह कितै सिधारो ।। बर्षा.-तौ चलौ यासू कडू पूछ । अहो कदम्ब अहो अम्ब निम्ब अहो बकुल तमाला । ब. दे. चल । तुम देख्यौ कहुँ मन मोहन सुन्दर नंदलाला ।। (तीनों पास जाती हैं) अहो कुंच बन लता बिरुध तृन पूछत तोसों । ब.दे.- (चन्द्रावली के कान के पास) अरी मेरी तुम देखे कहुं श्याम मनोहर कहहु न मोसों ।। बन की रानी चन्द्रावली ! (कुछ ठहर कर) राम ! सुनै ह अहो जमुना अहो खग मृग हो अहो गोबरधन गिरि । नहीं है (और ऊंचे सुर से) अरी मेरी प्यारी सखी तुम देखे कहुं प्रान पियारे मन मोहन हरि ।। चन्द्रावली ! (कुछ ठहर कर) हाय ! यह तो अपने सों (एक एक पेड़ से जाकर गले लगती है) बाहर होय रही है अब काहे को सुनेगी (और ऊंचे सुर (बन देवी फिर सीटी बजाती है) से) अरी ! सुनै नाय नै री मेरी अलख लड़ती अहा देखो उधर खड़े प्राण प्यार मुझे बुलाते चन्द्रावली! हैं तो चलो उधर ही चलें (अपने आमरण संवारती हैं) च.-(आंख बन्द किये ही) हा हा अरी क्यौं (वर्षा और संध्या पास आती हैं) चिल्लाय है चोर भाग जायगो । व.- (हाथ पकड़कर) कहां चली सजि कै? ब. दे. -कौन सो चोर ? च. पियारे सों मिलन काज । च.-माखन को चोर, चीरन को चोर और मेरे कहां तु खड़ी है? १. हरा कपड़ा, पत्ते का किरीट, फूलों की माला । २. गहरा नारंज्जी कपड़ा । ३. रंग सांवला लाल कपड़ा । भारतेन्दु समग्र ४४६